पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/८१

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धार रस अनुभव जथार्थ, पै नहिँ इक-अंगी, ग्रंथनि कौ औ मनुष-प्रकृति को ज्ञान, सुढंगी, अति उदार आलाप; हृदय अभिमान बिहीना; औ मन सहित प्रमान प्रसंसा रुचि सौं भीना ॥ पहिलैं ऐसे रहे विवेचक, ऐसे सुचिमन, आर्यवर्त मैं भए सुभग जुग मैं कतिपय जन ॥ भरत महामुनि अचल ध्यान-मंदिर धरि लीन्यौ, पारावार अपार मनन को मंथन कीन्यो काव्य-कला-साहित्य-नियम-बर-रतन निकारे, देस प्रदेसनि माहि, कृपा उर आनि, बगारे ॥ कवि जो चिरकालीन निरंकुश औ मनमाने, नित स्वतंत्रता अनघड़ की रुचि औ मद-साने, माने वे बर नियम, बात यह उर निरधारी, बस कोन्ही निज प्रकृति सुमति सासन अधिकारी ॥ श्री जयदेव अजौं स्वाच्छंद ललित सौं भाव । औ क्रम बिनहूँ पाठक कौँ मति-पाठ पढ़ःवै, उर उपजावै, मित्रनि लाँ, सुभ सरल प्रीति साँ, अति सुंदर, सदभाव भव्य, अति सहज रीति सौं॥ सो जो श्रेष्ठ काव्य मैं ज्यौं, बिबेक हू मैं त्यौं, करि सकत्यौ खंडनहु उदंड, उदंड लिख्यौ ज्यौं,