पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/८२

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जाँच्यौ तदपि ससाँति, जदपि गायौ उमाहरत, सोइ सिखवत तेहि वाक्य, काब्य जो हिये जगावत । आज काल के जाँचक पै उलटी गति धार, जाँचैं भरि औधत्य, लेख पैसिथिल सँवारै ॥ लखहु मुकंददास सुकदेव सु-भनित परकासत, प्रति पंक्तिनि सौं नए नए लावन्य निकासत । कालिदास में सक्ति, चातुरी, दोउ छबि छाएँ, विद्वज्जन पांडित्य, सुसभ्य सहजता भावै ॥ अति गंभीर श्रीहर्ष महान ग्रंथ मैं सोभित, परम युक्ततम नियमऽरु क्रम सपष्टतम मिश्रित । ज्यौँ उपकारी अस्त्र जात अस्त्रालय धारे, सब क्रम सौँ जतबद्ध, सुधरता सहित सम्हारे, पै न दृगनि-सुख हेत, बरन कर के बाहन हित, नित प्रयोग के योग, यथा-इच्छत्ति उपस्थित ॥ उद्धत पंडितराजहिँ कियौ कला सब मंडित, निज बिबेचकहि दई दिब्य कवि-गिरा उमंडित । उत्तेजित जाँचक जो नित करतब में उद्यत, है तातौ सम्मति दै, पै नित रहत न्यायरत, उदाहरन निज जाकौ जाके नियम दृढ़ावे, औ आपुहि सो अति महान जिहि लिखि दरसावै॥