पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/८६

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बिन प्रतिभा के लिखत तथा जाँचत बिबेक बिन, अहंकार सौँ भरे फिरत फूले नित निसि दिन, जोरि बटोरि कोऊ साहित्य-ग्रंथ निर्माने, अर्थमून्य कहुँ कहूँ बिरोधी लच्छन ठाने । जानतहू नहिं कहा अतिव्याप्ति, अब्याप्ति असंभव, बनि बैठत साहित्यकार आचार्य स्वयंभव । जात खड़ी बोली मैं कोऊ भयो दिवानी, कोउ तुकांत बिन पद्य लिखन मैं है अरुझानो ॥ अनुपास-प्रतिबंध कठिन जिनकै उर माही, त्यागि पद्य-प्रतिबंधहु लिखत गद्य क्यों नाही ? अनुप्रास कबहूँ न सुकबि की सक्ति घटा बरु सच पूछा तो नव सूझ हियँ उपजावें ॥ ब्रजभाषा औ अनुपास जिन लेखें फीके, माँगहिँ बिधना सौँ ते श्रवन मानुषी नीके । हम इन लोगनि हित सारद सौं चहत बिनय करि, काहू विधि इनके हिय की दुर्मति दीजै दरि ॥ जासौँ ये साँचे आनंदप्रद सौं सुख पावे, औ हठ करि नित औरनि हूँ कौँ नहिँ बहकावें । होहिं बहुरि सद कबि ओ काब्यकला सुखदाई, रहै सदा भारत मैं उन्नति की अधिकाई ।।