पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/८८

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तिहि पुरि औ तिहि वंस माहिँ अवतंस बीरबर । अहाइसौँ भयौ भूप हरिचंद गुनाकर ॥ रामचंद सौं भया पूर्व सो पैंतिस पीढ़ी। निज प्रन पालि सदेह चढ़यौ जो सुरपुर-सीढ़ी ॥२॥ परम पुन्य को पुंज प्रौढ़-प्रन प्रखर-प्रतापी । सत्यव्रती दृढ़ धर्म-धैर्य-मर्जादा-थापी॥ प्रजा-पाल खल-साल काल सम कुटिल कुजन काँ। गुन-ग्राहक असि-बाहक दाहक दुष्ट दुवन कौँ ॥३॥ नृप-कुल-कल-किरीट-मनि-संज्ञा को अधिकारी। नहिं छत्रिहि बरु मनुष मात्र को गौरव-कारी ॥ सकल सुखी तिहि राज माहिँ नित रहत धर्म-रत । निज निज चारहु बरन चारु आचरन आचरत ॥ ४॥ कहुँ कलेस को लेस देस मैं रहयौ न ताके । घर घर नित नव मंजुल मंगल मोद प्रजा के। ताको कछु इतिहास इहाँ संछेप बखानौं । जौ सादर बुध सुनहि सफल तो निज श्रम जानौँ ॥५॥ एक दिवस नारद मुनि-वर सुर-सभा पधारे । गावत हरि-गुन बिसद बीन काँधे पर धारे ॥ पेखि पुरंदर मानि मोद पग-परसन कीन्यौ । सिष्टाचार यथाबिधि करि दिब्यासन दीन्यौ ॥६॥