पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/८९

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पुनि पूछी कुसलात बात बहु भाँति चलाई। निपट नम्रता सहित करी कल बिनय बड़ाई ॥ "अहो देव ऋषि-राज ! आज आगमन तिहारे । गृह पवित्र, मन मुदित, भये मम नैन सुखारे ॥७॥ जो न अकारन करहिँ कृपा तुम से उपकारी। तो पावहिं सतसंग कहाँ हम से गृह-धारी"॥ सुनि सुरेस की सुघर बचन-रचना-चतुराई। मुनिबर मृदु मुसुकात बात इमि कही सुहाई ॥८॥ "सब देवनि के राज अहो तुम इमि कत भाषत । तुव संगति-सुख बरु सब सुर नर मुनि अभिलाषत । औ हमकौँ तो रहत सदा इहि ढारिहि दरिबौ । करिबौ हरि-गुन-गान मोद मढ़ि बिस्व विचरिवौ" ॥९॥ पुनि पूछयौ सुरराज "आज मुनि आवत कित त । लोकोत्तर आह्लाद परत छलक्या जो चित तैं॥ सुनि मुनि सहित उछाह चाहि बोले मृदुबानी । "अहो सहस-हग साधु ! बात साँची अनुमानी ॥१०॥ साँचहिँ अकथ-अनंद-मुदित मन आज हमारौ । धन्य भूप हरिचंद धन्य जग जनम तिहारौ ॥ धन्य धन्य पितु मातु तुमहिं जीवन जिन दीन्द्यौ । जिहि बिरंचि रचि निज प्रपंच को प्राच्छित कीन्यौ ॥११॥