पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/९

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अगुन सगुन फंद बंद निरवारन कौँ धारन कौँ न्याय की नुकीली नखियाँ चहै । मोर-पँखियाँ को मौरवारौ चारु चाहन कौँ ऊधौ अँखियाँ चहै न मोर-पखियाँ चहें ॥ ( रत्नाकर) प्रथम कवित्त में वह असाधारण दृढ़ता है जो खड़ी बोली के कम कवित्तों में मिलेगी; पर उस अंतरंग गहन संगीत की ध्वनि नहीं जो दूसरे कवित्त से पद् पद पर प्रकट हो रही है, यह केवल शब्द-सौंदर्य की बात नहीं है। छंद के घटन-जन्य सौंदर्य की पंक्ति पंक्ति की, एक से दूसरी की सन्निधि की, और उस सन्निधि में सन्निहित संगीत की बात है। यहां रत्नाकर की व्रजभाषा और नवीन खड़ी बोली का भेद बहुत कुछ प्रकट हो जाता है। यही उस पुरानी पच्चीकारी की बात है जिसका उल्लेख हम ऊपर कर चुके है। नवीन प्रासाद-निर्माण के कार्य में और इस मीनाकारी में जो अंतर है, वह यहाँ थोड़ा बहुत स्पष्ट हो जाता है। खड़ीबोली के कवित्त में कलम पकड़ते ही लिख चलने का सुभीता है; पर ब्रजभाषा के कवित्त के लिए रियाज और तैयारी चाहिए। इसी कारण इन दिनों खड़ी बोली में भावना का अधिक सत्य रूप और ब्रज में अधिक आकर्षक रूप उतरने की आशा की जाती है। रत्नाकर जी के छंदों की चर्चा करते हुए हमने उनकी जिस रचना-चातुरी की प्रशंसा की, वह काव्य का चरम लाभ नहीं है। वह तो कवियों की वह श्रम- लभ्य कला है जिसकी सहायता से वे अद्वितीय चमत्कार को सृष्टि करके सुख-संचार करते हैं। बहुधा प्रथम श्रेणी के जगद्विख्यात कवियों में यह कला कम देखी जाती है और मध्यम श्रेणी के पारखी कवि उन अवसरों पर इसका अधिक प्रयोग करते हैं जब उन्हें वास्तविक काव्य-भावना के अभाव की पूर्ति करनी होती है। इस अनमोल उपाय से कविगण अपना उत्कर्ष साधन करते हैं। अँगरेजी कवियों में टेनीसन ने इसी की सहायता से अपनी मर्यादा भाषा के श्रेष्ठ कवियों के समकक्ष स्थापित की थी। उसमें चॉसर और कोलरिज की सी स्वच्छ रचना की मौलिक शक्ति नहीं; सेंसर का सा बहुत भारी और व्यापक विषय का ग्रहण-सामर्थ्य नहीं; शेक्सपियर की सहज विश्वजनीनता नहीं; न वह उत्थान, न वह विस्तार, न वह सर्व-गुण-संपन्नता है; मिल्टन का गंभीर स्वर भी उसे नहीं मिला; न ववर्थ की आध्यात्मिक प्रकृति-प्रियता; न शैली की आधिदैविक भावना; न कीट्स का स्वच्छंद सरस प्रवाह। फिर भी टेनीसन काव्य-कला के आश्चर्य-प्रदर्शन के द्वारा शेक्सपियर को छोड़कर शेष सबके समकक्ष आसन पाने का अधिकारी हुआ है। हम देखते हैं कि रत्नाकर में भी काव्यकला का वही प्रदर्शन, सर्वत्र नहीं तो कम से कम कवित्तों में अवश्य, दृष्टिगोचर है । इनकी अधिकांश भावना भक्तों से ली हुई हैं, परंतु भक्तों में इनकी तरह कविता- रीति नहीं थी। वे तो भजनानंदी ही अधिक थे। उनके उपरांत जो.रीति- कवि , उनमें अनुभूति की कमी और भाषा-श्रृंगार अधिक हो गया। इस कवि-परंपरा में पद्माकर अन्यतम समझ जाते हैं और रत्नाकर जी इस विषय में अपने को पद्माकर से प्रभावित मानते थे। तथापि "उद्धवशतक" में उनकी कविता पद्माकर से अधिक ओजपूर्ण और भक्ति-भावापन्न है और "गंगावतरण"