पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/९०

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. सुनि सुरपति अति आतुरता-जुत कहयौ जोरि कर । "कौन भूप हरिचंद कहा हमसहुँ कछु मुनिवर" ॥ "सुनहु सुनहु सुरराज", कयौ नारद उछाह सौं। "ताकी चरचा करन माहिँ चित चलत चाह सौं ॥१२॥ मृत्युलोक को मुकुट देस भारत जो सोहै। ताके उत्तर पच्छिम भाग माहिँ मन मोहै ॥ अवधपुरी अति रम्य परम पावनि मंगलमय । है तिहिँ को नरनाह भूप हरिचंद महासय ॥ १३ ॥ ताही के लखि चरित आज मन मुदित हमारौ । अति अमोघ आनंद परम लघु हृदय विचारौ ॥ अहह होत ऐसे नर-रत्न जगत मैं थोरे। सरल हृदय निष्कपट-भाव अबिचल-ब्रत भोरे" ॥ १४ ॥ सुनि मघवा अति ईर्षा सौं मनहीं मन खीझयो । पै निज भाव दुराइ बचन ऐसे पुनि सीझ्यौ । "साँचहिँ जान परत हरिचंद उदारचरित अति । संप्रति ताहि प्रसंसत सुनियत सबहिं धीरमति ॥ १५ ॥ पै कहियै कछु गृह-चरित्र ताके हैं कैसे" बोले मुनि पुनि “हान उचित सज्जन के जैसे ॥ जिनके परम पवित्र चरित्र नाहिँ घर माहौँ । कैसहु होहिँ कदापि प्रसंसा-जोग सु नाही" ॥ १६ ॥