पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/९१

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करि कछु कूत मनहिँ मन पुनि पुरहूत उचारयौ । "कहा भूप हरिचंद स्वर्ग-हित यह ब्रत धारयौ" ॥ बोले मुनि “यह कहत कहा तुम बात अनैसी । मद-उदार-चरितनि कौँ स्वर्ग-कामना कैसी ॥ १७ ॥ परम आत्म-संतोष-हेत निज चरित सुधारत । कहुँ सज्जन स्वर्गासा करि निज जनम बिगारत ॥ करि कर्तब्य सुधार चरित संतुष्ट सुखी जो। स्वर्ग-लोक-सुख बरु औरनि करि दान सकतसा ॥१८॥ उदाहरन ताकौ देखौ हम प्रगट लखावें । बैठे स्वर्गहु मैं ताका गुन गुनि सुख पावै॥ सुरपति मन मैं गुन्यौ “जदपि साँचहि मुनि भाखत । जद्यपि नृप हरिचंद स्वर्ग-आसा नहिँ राखत ॥ १९ ॥ निज चरित्र सौं है तदपि स्वर्ग-अधिकारी। तातें करिवौ विघन कछुक अतिसय उपकारी" ॥ कह्यौ “जदपि हरिचंद लखात अमंद चरित अति । तदपि परिच्छा की इच्छा कछु होति धीरमति ॥ २० ॥ या कोउ मिस ठानि ब्यौत ऐसौ कछु कीजै । जासौं ताके सत्यहि परखि सहज मैं लीजै ॥ सानुकूल सुभ समय सबहि सोभा सँग राखत । सुबरन सोइ साँच आँच सहि जो रँग राखत" ॥ २१॥ पै