पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/९४

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करि मन इहै बिचारि हारि सुनि अनुचित बानी । सिच्छा हेत परिच्छा की इच्छा उर आनी" ॥ यह सुनि विस्वामित्र कयौ टेढ़ी करि भौहै । "यामैं अनुचित कहा जानि मुनि भये रिसौंहैं ॥३२॥ सब संसय परिहरहु परिच्छा हम अब लैहैं। निज तप-तेज तचाइ खोलि कलई सब दैहैं॥ मो आगें जाके तप तीन्यौ लोक तपै है। सो दानी है कहा कहौ निज सत्य निबैहै ॥३३॥ देखो बेगिहि जौ ताको नहि तेज नसावौं । तौ पुनि पन करि कहाँ न बिस्वामित्र कहावा" ॥ यौँ कहि आतुर दै असीस लै बिदा पधारे। चपल धरत पग धरनि किये लोचन रतनारे ॥३४॥