पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/९८

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लीजै मानि प्रमोद सकल महि सादर दीन्ही" । "स्वस्ति" भाषि मुनि मन मैं बिविध प्रसंसा कीन्ही ॥ स्रवन सुन्या जैसौ तासौ बढ़ि आँखिनि देख्यौ । साँचहिँ नृप हरिचंद अमंद-चरित मुनि लेख्यौ ॥ १४ ॥ सद-गुन-गन-आगार धर्म-आधार लसत यह । साँचाहिँ परम उदार भूमि-भर्तार लसत यह ॥ जिहि महि के दस-हाथ-हेत वृप माथ कटावें । रुंडहु है उठि लरै रुधिर सौं कुंड भरा ॥ १५ ॥ जिहिँ हित तप करि त● प. नर स्वारथ-घेरे । सो सब तन-इव तजी नै तेवर नहिँ फेरे ॥ अब करि कौन कुढंग भंग या को ब्रत कीजै । पुनि कछु गुनि बोले “अब दान-प्रतिष्ठा दीजै" ॥ १६ ॥ कह्यौ भूप कर जोरि "हाहि इच्छा सो लीजै" । बोले ऋषिवर "सहस-स्वर्ण-मुद्रा बस दीजै"। "जो आज्ञा" कहि नृपति बेगि मंत्रिहि वुलवाया। सहस स्वर्ण-मुद्रा आनन-हित हरषि पठायौ ॥ १७ ॥ यह लखि ऋषि बिकराल लाल लोचन करि बोले । भृकुटी जुगल मिलाइ किये नासा-पुट पोले ॥ “रे मिथ्या धर्मध्वज, मृषा सत्य-अभिमानी । धर्म-धीरता प्रन-दृढ़ता तेरी सब जानी ॥ १८ ॥