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रवीन्द्र-कविता-कानन
 

दादा बले, "पाबी कोथाय
अत बड़ फांद?"
आमी बोली, "केन दादा
ओइ तो छोटो चाँद,
दुटी मुठोय ओरे
आनते पारी धोरे!"
सुने दादा हेसे केनो
बोलले आमाय; "खोका
तोर मतो आर देखी नाइ तो बोका!
चाँद यदि एइ काछे आसतो
देखते कतो बड़ो!"
आमी बोली, 'कि तुमी छाई
इस्कूले जे पड़ी।
मा आमादेर चूमो खेते
माथा करे नीचू
तखन कि मार मुखटी देखाय
मस्त बड़ो किछू?"
तबू दादा वले आमाय, "खोका;
तोर मतो आर देखी नाइतो बोका!'

(दादा ने कहा, "इतना बड़ा फन्दा तू कहाँ से लायेगा?' तब मैने कहा, 'क्यों दादा, वह देखो न, छोटा सा तो है चााँद, दोनों मुट्टियों में भर कर, कहो तो उसे पकड़ लाऊँ।' मेरी बात सुन कर दादा ने हेमते हुए कहा, 'लल्ला, तेरी तरह का बेवकूफ तो मैंने नहीं देखा। यह चाँद अगर पास आ जाय तो तू देखता कि यह कितना बड़ा है।' मैंने कहा, 'क्या तुम खाक स्कूल जाते हो? जब हमारी माँ सिर झुका कर हम लोगों को चूम लेती हैं तब क्या माँ का मुँह बहुत बड़ा हो जाता है ?' मेरे इस तरह के कहने पर भी, दादा ने कहा, 'लल्ला तेरी तरह बेवकूफ तो मैंने नहीं देखा।')

महाकवि को इस कविता का मर्म पाठक समझ गये होंगे। इसमें बच्चे के भोलेपन को किस तरह कविवर को भोली तूलिका अंकित करती है, पाठकों ने देखा होगा। कविता लिखते हुए कवि भी बालक हो गये हैं, भाव बालक, वर्णन