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रवीन्द्र-कविता-कानन
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बालक, महाकवि बालक; सहृदय पाठक भी पढ़ते हुए बालपन की सुखद स्मृति में पहुँच कर बालक ही हो जाते हैं। चाँद को पेड़ की ओट में उगा हुआ देख, बालक उसे कदम्ब की डाल पर अटका हुआ कहता है। पेड़ों के छेद से छन कर आती हुई चाँदनी जब दर्शक पर अपनी मोहिनी डाल, उसे चाँद के पास आकर्षित कर ले जाती है, तब वह देखता है, चाँद खुद किसी मोहिनी शक्ति से खिचा हुआ अपने सुदूर आकाश को छोड़ पेड़ों की डाली से लिपट गया है, जैसे थक कर और चलना न चाहता हो—जड़ पेड़ो से लिपट कर अपनी सहायता की प्रार्थना करता हो—विश्व-विधान से जान बचाने के लिये। कदम्ब की डाली पर चाँद को अटक गया देख बच्चे ने अपने बड़े भाई से उसे ले आने के लिये कहा था। इस पर उसके भाई ने उसे बेवकूफ कहा। इसी बात का उसे रंज है। वह भाई की बात पर विश्वास नहीं कर सका, और करना भी नहीं चाहिये था, कर लेता तो बच्चे की प्रकृति पर प्रौढ़ता को छाप जो लग जाती। परन्तु उसे विश्वास नहीं हुआ, इस विषय को किसी नीरव उक्ति द्वारा महाकवि ने समाप्त नहीं किया, वे बच्चे की पुरजोर युक्ति भी उसी से कहलाते हैं; वह कहता है, जब हमारी माँ झरोखे से निहारती है तब क्या वह इतनी दूर रहता है कि हम उसके पास जा नहीं सकते? यहाँ मधुर सौंदर्य के साथ कवित्व-कला के एक बहुत ही कोमल दल को महाकवि ने खोल कर खिला दिया है। लघुहस्त रवीन्द्रनाथ ही इस कोमल पङ्खुड़ी को खोल सकते थे, दूसरे के स्पर्श मात्र से दल में दाग लग जाता, फिर वह इस तरह से खुल न सकता था। एक तो चाँद के साथ मुख की उपमा और वह भी बच्चे के अज्ञात भाव से, बच्चे को यह साहित्यिक तौल क्या मालूम, वह तो स्वभावतः अपनी माँ को याद करता है और जिस तरह झरोखे पर बैठी हुई माँ के पास वह अनायास ही जीने पर चढ़ कर चला जा सकता है, उसी तरह अपने भाई के लिये भी, पेड़ पर चढ़ कर चाँद को पकड़ लाना, वह सम्भव सिद्ध करता है। जब उसका भाई कहता है, तब भी उसे विश्वास नहीं होता, वह कहता है, जब हमारी माँ हमें चूमती है, उसका मुंह हमारे मुंह पर रख जाता है, तब क्या वह बहुत बड़ा हो जाता है? जब माँ का मुंह पास आने पर नहीं बड़ा होता तो चाँद कैसे बड़ा हो जायगा? देखिये कितनी मजबूत युक्ति है? कितना भोलापन है! महाकवि की भाषा की तो कुछ बात ही न पूछिये। छोटे-छोटे बच्चे जिस भाषा में बोलते- बतलाते हैं, बिल्कुल वही भाषा, मधुर और खूब मँजी हुई, बच्चों को; पर