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रवीन्द्र-कविता-कानन
 

कवित्व-रस से सराबोर। एक कविता है 'समालोचक'। इसमें बच्चा अपने पिता की समालोचना करता है—

"बाबा नाकी बइ लेखे सब निजे!
किच्छुइ बोझा जायना लिखेन किजे!
से दिन पड़े सुनाच्छिलेन तोरे
बुझेछिली बल मां सत्यि कोरे!
एमन लेखाय तबे
बल दिखी की हबे?
तोर मुखे माँ जेमन कथा सुनी
तेमन केनो लेखेन नाको उनी?
ठाकुरमा की बाबा के कक्खनो
राजार कथा सुनायनी को कोनो?
से सब कथागुली
गेछे बुझी भूलि?
स्नान करते बेला होलो देखे
तुमी केबल जाओ माँ डेके डेके,—
खाबार निये तुमिइ बोसे थाको,
से कथा तर मनेइ थाके नाको!
करेन सारा वेला
लेखा लेखा खेला!
बाबार घरे आमी खेलते गेले
तुमी आमाय बलो दुष्टु छेले!
बको आमाय गोल करले परे—
"देखिचिस ने लिखछे बाबा घरे?"
बल तो, सत्ति बल,
लिखे की हय फल!
आमी जखन बाबार खाता टेने
लिखी बोसे दोआत कलम एने—
क ख ग घ ङ य र ल
आमार बेला केन राग करो?