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रवीन्द्र-कविता-कानन
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बाबा जखन लेखे
कथा कवना देखे!
बड़ बड़ रुल काटा कागज
नष्ट बाबा करेन ना कि रोज?
आमी यदि नौका करते चाई
अमनी बलो-नष्ट करते नाई!
सादा कागज, कालो
करले बुझी भालो?"

बच्चा अपनी माँ से कहता है— (क्यों माँ! बाबू जी पुस्तकें लिखते हैं—न? परन्तु क्या लिखते हैं कुछ खाक समझ में नहीं आता। अच्छा उस दिन तो तुझे पढ़ कर सुना रहे थे, क्या तू कुछ समझती थी, माँ सच-सच बता। अगर तू नहीं समझती तो इस तरह के लिखने से भला होगा क्या?

माँ, तेरे मुँह से कैसी बातें सुनता हूँ, उस तरह की बातें बाबू जी क्यों नहीं लिखते? क्या बूढ़ी दादी ने बाबू जी को राजा की बातें कभी नहीं सुनाई? वे सब बातें बाबू जी अब भूल गये हैं—क्या?

माँ, उन्हें नहाने की देर करते देख जब तू उन्हें पुकार-पुकार कर चली आती है, और खाना लिये तू बैठी रहती है, तब क्या उन्हें इस बात की याद भी नही होती ?—दिन भर लिख-लिख कर खेल किया करते हैं!

जब मैं कभी बाबू जी के कमरे में खेलने के लिये जाता हूँ, तब तू मुझे कहती है—क्यों रे तू बड़ा बदमाश है! चिल्लाने पर तू मुझे बकती है। कहती है, तेरे जी लिख रहे हैं। अच्छा माँ, सच कहो, लिखने से फल क्या होता है?

जब मैं बाबू जी का खाता खींच कर दावात-कलम ले, क ख ग घ ङ, य र ल व लिखता हूँ, तब मेरी बारी पर तू क्यों गुस्सा होती है? और जब बाबू जी लिखते हैं तब तू कुछ नहीं बोलती!

लकीर वाले बड़े-बड़े कागज क्या बाबू जी नहीं बरबाद करते? जब जब मैं नाव बनाने के लिये मांगता हूँ तब तू कहती है, कागज बरबाद न करना चाहिए। क्यों माँ, सफेद कागज को काला करना ही अच्छा होता है—क्या?)