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रवीन्द्र कविता-कानन
 


यह बच्चे की समालोचना है। युक्ति कितनी मजबूत है! बच्चे की स्वाभाविकता कहीं भी नष्ट नहीं हो पाई। बच्चा हो या वृद्ध, वह अपनी बुद्धि के माप-दण्ड से संसार को नापना है, यही मनुष्य का स्वभाव है। मनुष्यमात्र इस स्वभाव के वश है। इस स्वभाव को कोई छोड़ भी नहीं सकता। अगर स्वभाव छूट जाय, प्रकृति से सम्बन्ध विच्छिन्न हो जाय, तब यह संसार भी नष्ट हो जाय। भिन्न-भिन्न प्रकृतियों का घात-प्रतिघात ही संसार है—यही उसकी लीला। अस्तु, प्रकृति या स्वभाव को मनुष्य छोड़ नहीं सकता। हम देखते हैं, हमारे देश में एक विषय पर अनेक प्रकार की समालोचनाएँ हुआ करती हैं। एक विद्वान के मत से दूसरे विद्वान का मत नहीं मिलता। यह क्यों? इसका कारण बस यही कि उनके स्वभाव जुदा-जुदा हैं—उनकी प्रकृति एक नहीं। मन का एक दूसरा स्वभाव यह भी है कि वह जो कुछ चाहता है, जिसे पसन्द करता है उसी के अनुकूल युक्तियाँ जोड़ता जाता है। बच्चा भी अपनी समालोचना में अपने को अपने बाबू जी से कहीं अधिक बुद्धिमान समझता है, परन्तु उसकी बातों में प्रवीण समालोचकों की रूढ़ता नही सरलतापूर्वक वह अपनी माँ से अपने बाबू जी की मूर्खता की जाँच कर रहा है। अपने बाबू जी का लिखना वह खुद नहीं समझ सका, अतएव उसे विश्वास नहीं कि उस भाषा को उसकी माँ समझती होगी। महाकवि ने बच्चे के स्वभाव का बड़ा ही सुन्दर चित्रांकरण किया है। बच्चे की दृष्टि में संसार खिलवाड़ है, उसके बाबू जी भी लिख-लिख कर खिलवाड़ किया करते हैं। उसे एक बात का बड़ा दुःख है। वह जब अपने बाबू जी की दावात और कलम ले कर ककहरा गोदने लगता है, तब उसकी माँ उसे तो डांटती है; पर उसके बाबू जी से कुछ नहीं बोलती जो दिन भर बैठे हुए खिलवाड़ किया करते हैं। ये कविताएं निरी सीधी भाषा में लिखी हुई होने पर भी उच्च कोटि की हैं। मनुष्य के मन में पैठना जितना सरल है बालक की प्रकृति को परखना उतना ही कठिन।

अब बच्चे का विज्ञान सुनिये। एक कविता 'वैज्ञानिक' नाम की है। बच्चा अपनी मां से कहता है—

जेमनी मागो गुरु गुरु
मेघेर पले साड़ा,
अमनी एल आषाढ़ मासे
बृष्टि जलेर धारा।