पृष्ठ:रवीन्द्र-कविता-कानन.pdf/१११

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रवीन्द्र-कविता-कानन तारा तारी मतो, घर होते सबाई बाहिर होयेछे पथे; पाये छुन-ठुन बाजे तुड़ी, जेनो बाजिते छे मल चुड़ी; गाये आलो करे झिक झिक, येन परेछे हीरार चीक। मुखे कल कल कतो भाषे एतो कथा कोथा होते आसे । शेषे सखीते सखीते मेली हेसे गाये गाये हेला हेली। शेष कोला कुली कलरवे तारा एक होये जाय सबे। तखन कल कल छूटे जल, काँपे टलमल धरातल, कोथाओ नीचे पड़े झर झर, पाथर केंपे उठे थर थर, शिला खान-खान जाय टुटे, नदी चले एलो केटे कुटे। धारे गाछगुलो बड़ो बड़ो तारा होये पड़े पड़ो-पड़ो। कत बड़ो पाथरेर चाप जले खसे पड़े झप-झाप। तखन माटी गोला घोला जले फेना भेसे जाय दल-दले । जले पाक घुरे घुरे उठे, जेन पागलेर मतो छुटे X (क्यों जी, क्या तुम कोई कह सकते हो. ये पानी में इतनी तरंगें क्यों उठती हैं ? वे दिन-रात नाचती रहती हैं; अच्छा यह नाच उन लोगों ने किससे सीखा है ? सुनो, चल-चल् छल-छल् गाती हुई चली जा रही हैं । वे बाहें पसार. x x