पृष्ठ:रवीन्द्र-कविता-कानन.pdf/११७

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श्रृंगार


जहाँ रवीन्द्र नाथ ने विश्व-प्रकृति के शृङ्गार-भाव का चित्रांकण किया है, वहां उन्होंने उसके कोमल सौंदर्य की जितनी विभूतियाँ हैं, उन्हें बड़ी निपुणता के साथ प्रस्फुट कर दिखाया है। उनकी यह कला बड़ी ही मनोहारिणी है। वे बाहरी सौंदर्य के इधर-उधर बिखरे हुए—प्रक्षिप्त अंशों को जिस सावधानी से चुन कर उनका एक ही जगह समावेश कर देते हैं, उनकी अवलोकन शक्ति इतनी प्रखर जान पड़ती है कि मानो उसके प्रकाश में एक छोटी से छोटी वस्तु भी नहीं छूटने पाती, जैसे पूर्णता स्वयं उन्हें अवलोकन की राह बता रही हो। दूसरी खूबी, उनके वर्णन की है। प्रकृति का पर्यवेक्षण करने वाला हो कवि नहीं हो जाता, उसे और भी बहुत-सी बातों की नाप-तौल करनी पड़ती है। एक ही शब्द के पर्यायवाची अनेक शब्द होते हैं। उनमें किस शब्द का प्रयोग उचित होगा, किस शब्द से कविता में भाव की व्यंजना अधिक होगी, इसका भी ज्ञान कवियों को रखना पड़ता है। शब्दों की इस परीक्षा में रवीन्द्रनाथ अद्वितीय हैं। आप से पहले हेमचन्द्र, नवीनचन्द्र, माइकेल मधुसूदन, आदि बंगभाषा के बहुत बड़े-बड़े कवि हो गये हैं, परन्तु यह परख रवीन्द्रनाथ की जितनी जंची-तुली होती है, उतनी उनसे पहले के किसी कवि में नहीं पाई जाती। छन्दों के लिये तो रवीन्द्रनाथ को आप रत्नाकर कह सकते हैं। इतने छन्दों की सृष्टि संसार में किसी दूसरे कवि ने नहीं की। रवीन्द्रनाथ के छन्दों से उनके भावों की व्यंजना और अच्छी तरह प्रकट होती है। जिस तरह, शब्दों