पृष्ठ:रवीन्द्र-कविता-कानन.pdf/१२०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

११६ रवीन्द्र-कवित-कानन 'आमार मनेर मोहेर माधुरी माखिया राखिया दियोगो-तोमार अङ्ग सौरभे। (१) आमार आकुल जीवन मरण टूटिया लूटिया नियोगो-तोमार अतुल गौरवे। (२) अर्थ :-मेरे मन के मोह की माधुरी, ऐ सखि ! अपने अंग सौरभ के साथ तेल और फुलेल के साथ मिला कर रख देना (१) । मेरे व्याकुल इस जीवन और मरण को अपने अनुपम गौरव के साथ टूट कर लूट लेना (२)। यहाँ हमें चौरपंचासिका वाले सुन्दर कवि की याद आ गई । इस तरह का एक भाव उसकी भी अंतिम प्रार्थना में हमने पढ़ा था। उसके दो चरण हमें याद हैं । वह अपनी नायिका को लक्ष्य करके कहता है-जब मैं मर जाऊँगा तब मेरे शरीर के पाचों तत्व तेरी सेवा करें ! यही ईश्वर से मेरी प्रार्थना है- 'त्वद्वापीषु पेयस्त्वदीय मुकुरे ज्योति स्त्वदीयांगणे। व्योम्नि व्योम त्वदीय वर्मनि धरातलत्वात वृन्तेऽनिलः ।। अर्थात् मेरे शरीर का जल भाग तेरी वापी में चला जाय, ज्योति का अंत तेरे आईने में जाय और तेरे आँगन के ऊपर के आकाश भाग, तू जहाँ चले तेरे उस रास्ते पर मृत्तिकांश और तेरे ताड़ के पंख में मेरे शरीर का अनिल भाग समा जाय । रवीन्द्रनाथ के नायक की प्रार्थना इसी तरह की है, परन्तु उसका ढंग दूमरा है। एक और कविता देखिये। शीर्षक है 'बालिका वधू'। अपने देश की विवाही हुई छोटी-छोटी बालिकाओं की वधू के वेश में देख कर महाकवि कहते हैं १- ओगो वर, ओगो बधू, एइ जे नवीना बुद्धि विहीना ए तव वालिका बधू । (१) तोमार उदार बातास एकेला कतो खेला निये कराय जे बेला, तुमी काछ एले भावे तुमी तार खेलिबार धन सुधू, ओगो वर लोगो बधू । (२) -