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रवीन्द्र-कविता-कानन
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चाहता है, वह खेलती रहती है, यह भाव है) और जब तुम उसके पास आते हो तब वह तुम्हें भी अपने खेल की वस्तु समझती है (२)।

२—वह वेष-भूषा करना नहीं जानती, उसके गुथे हुए बालों के खुल जाने पर भी उसे लज्जा नहीं आती (३)। दिन भर में सौ बार धूल से वह घर बनाती और बिगाड़ती है, और फिर उसकी रचना करती है। वह मन-ही-मन सोचती है—यह मैं अपने घर और गृहस्थी का काम सम्हाल रही हूँ (४)।

३—उससे उसके पूजनीय लोग जब कहते हैं—'अरी, वे तेरे पति हैं— तेरे देवता हैं—तू इतना भी नहीं जानती', तब वह भय से सिकुड़ जाती और उनकी बातें सुनती है (५)। परन्तु किस तरह वह तुम्हारी पूजा करे, सोचने पर भी तो इसका कोई उपाय उसकी समझ में नहीं आता। कभी खेल छोड़ कर वह अपने मन में सोचती है—'पूज्य जनों के इस आदेश का मैं हृदय से पालन करूँगी (६)!'

४—वासर-सेज पर तुम्हारी बाहों में बँधी रहने पर भी वह मारे नींद के बेहोश पड़ी रहती है (७)। फिर वह तुम्हारी बातों का कोई जवाब नहीं देती, कितने ही शुभ मुहूर्त व्यर्थ बीत जाते हैं, जो हार तुमने उसे पहनाया वह न जाने सेज पर कहाँ खुल कर गिर जाता है (८)।

५—आँधी जब चलने लगती है-घोर दुर्दिन आ जाता है—जब धरातल और आकाश में त्रास छा जाता है—दसों दिशाएँ अन्धकार से ढक जाती हैं तब फिर उसकी आँख नहीं लगती, उसकी धूल और उसका खेल न जाने कहाँ पड़ा रहता है, बलपूर्वक वह तुम्हें पकड़े रहती है—सिमटती हुई तुमसे और भी सट जाती है; उस आंधी और दुदिन के समय उसका हृदय थर-थर कांपता रहता है (९)।

६—हम लोगों के चित्त में शंका होती है कि कहीं ऐसा न हो कि यह नादान तुम्हारे श्रीचरणों में कोई अपराध कर बैठे (१०)। तुम मन ही मन हँसते रहते हो, जान पड़ता है—तुम यही देखना पसन्द भी करते हो, भला उसके घरौंदे के पास आड़ में तुम क्यों खड़े रहते हो?—तुम्हें इससे कौन-सी जानकारी हो जाती है?—हम लोग व्यर्थ ही घबराते हैं—न? (११)।

७—तुमने अपने मन में समझ रखा है, एक दिन तुम्हारे श्रीचरणों पर उसका खेल समाप्त हो जायगा (१२)। तब वह तुम्हारे लिये बड़े यत्न से अपने को संवार कर झरोखे के पास जागती हुई बैठी रहेगी, तुम्हारे क्षण भर के