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रवीन्द्र-कविता-कानन
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को देख कर समझ में आ जाती है । वसन्त की चाँदनी रात में पति के हाथों से यौवन की छलकती हुई सुरा का प्याला पली ले लेती है । यहाँ—

"तुमी चेये मोर आंखी परे
धीरे पात्र लयेछो करे।"‐—

महाकवि के इस मनोराज्य की जटिल किन्तु मोहिनी माया की ओर इतना स्पष्ट संकेत देख कर मन मुग्ध हो जाता है। सहधर्मिणी यौवन का प्याला एकाएक नहीं ले लेती, उसके लेने में एक विज्ञान है, एक वैसी ही बात है जिसके चित्रण में कवि सम्राट गोस्वामी तुलसीदास लिखते हैं—

बहुरि वदन-वित्रु अंचल ढाँकी।
पियतन चितै दृष्टि करि बाँकी॥
खंजन-मंजु तिरीछे नयननि।
निज पति तिनहिं कह्यो सिय सैननि

गोस्वामी जी की सीता में पति की ओर निहारने पर चंचलता आती है, और उस समय वही स्वाभाविक था—परन्तु रवीन्द्रनाथ की पति-सुहागिनी यहाँ स्थिर है, धीर है, प्रेम की अचल और गम्भीर मूर्ति है। वह पति के मुख की ओर ताकती है, पति की आखों की राह जो आग्रह टपक रहा था, समझ कर चुपचाप प्याला ले लेती है और फिर हँस कर जिन अधरों पर सैकड़ों चुम्बन मुद्रित हो रहे थे, उनसे उस यौवन सुरा का पान कर जाती है। यह वह अपनी इच्छा से नहीं करती, पति को संतुष्ट करने के लिये करती है। फिर रात्रि की केलि जब आरम्भ के एक छोर से लेकर दूसरे छोर तक पहुँचती—प्रभात होता तब उस स्त्री की वह मूति नही रह जाती। वह अपने पति की दृष्टि में देवी की मूर्ति सी आकर खड़ी होती है। सूर्य की पहली किरण पेड़ों के कोमल पल्लवों पर पड़ने नहीं पाती और उसका नहाना, फल तोड़ना सब समाप्त हो जाता है। उसका पति स्वयं कहता है—

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"राते प्रेयसीर रूप धरि
तुमी एसेछो प्राणेश्वररी
प्राते कखन देवीर वेशे
तुमी समुखे उदिले हेसे।"

सुबह के समय वह हंस कर अपने पति के पास खड़ी होती है, परन्तु उसका पति उसके सम्मान के लिये सिर झुका लेता है। यहाँ महाकवि पवित्रता की