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परिचय
 

रवीन्द्रनाथ के जीवन के साथ बंगभाषा का बड़ा ही घनिष्ठ सम्बन्ध है, दोनों के प्राण जैसे एक हो । रवीन्द्रनाथ सूर्य हैं और बंगभाषा का साहित्य सुन्दर पद्म । रवीन्द्रनाथ के उदय के पश्चात् ही बंग-साहित्य का परिपूर्ण विकास हुआ। रवीन्द्रनाथ के आने के पहले इसके सौन्दर्य की यह छटा न थी, न इसके सुगन्ध की इतनी तरंगें संसार में फैली थीं। पश्चिमी विद्वानों के हृदय में बङ्गभाषा के प्रति उस समय इस तरह का अनुराग न था । वे मधुलुब्ध भीरे की तरह इसकी ओर उस समय इतना न खिचे थे।

वह बङ्गभाषा के जागरण की अवस्था थी। कुछ बङ्गाली जगे भी थे, परन्तु अधिकांश में लोग जग कर अंगड़ाइयाँ ही ले रहे थे । आँखों से सुषुप्तिका नशा न छूटा था । आलस्य और शिथिलता दूर न हुई थी। उस समय मधुर प्रभाती के स्वरों में उन्हें सचेत करने की आवश्यकता थी। उनकी प्रकृति को यह कमी खटक रही थी । जीवन की प्रगति, रूखी कर्तव्य निष्ठा और कर्म- तत्परता को संगीत और कविता की सदा ही जरूरत रही है । बिना इसके जीवन और कर्म बोझ हो जाते हैं । चित्त-उच्चाट के साथ ही संसार भी उदास हो जाता है, जीवन निरर्थक, नीरस और प्राणहीन-सा हो जाता है ।

प्रकृति की कमी भी प्रकृति के द्वारा ही पूर्ण होती है । जागरण के प्रथम प्रभात में आवेश भरी भैरवी बंगालियों ने सुनी,- -वह संगीत, वह तान, वह स्वर, बस जैसा चाहिये । वैसा ही ! जाति के जागरण को कर्म की सफलता