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रवीन्द्र-कविता-कानन
 

स्वर्णाभा है, मधुर है, स्निग्ध है, मनोहर है और सबकी दृष्टि में पड़ती है, उसमें अवगुण्ठन, धूघट या परदा नहीं, यही सब बातें ऊर्वशी में भी हैं, वह स्वर्णवर्ण है, मनोरमा है और सबके लिये समभाव से मुक्तमुखी है।

ऊर्वशी के हर एक पदबन्ध में, उसके एक-एक भाव पर दृष्टि डाली गई है और महाकवि की कविता-किरण उनके प्रत्येक विचार में ज्योति की रेखा खींच देती है। रम्भा जिस तरह चौदह रत्नों के साथ समुद्र से निकली थी, उसी ऊर्वशी की उत्पत्ति-कल्पना भी महाकवि सिन्धु के विशाल गर्भ से करते हैं। उसे अनन्त यौवन कह कर जब उसी से उसके बाल्यकी बात पूछते हैं, मुकुलिता बालिका के घर को, उसकी क्रीड़ाओं की, प्रवाल-पलंग पर सोने की बात पूछते हैं, तब कल्पना अपनी मोहिनी में डाल कर क्षण भर में मुग्ध कर लेती है, और पूर्ण यौवन में गठित करके उस सोती हुई को एकाएक संसार की आश्चर्य भरी दृष्टि के सामने ला खड़ा करके तो गजब कर देते हैं। जहाँ लुब्धकवि, मधु पीकर मतवाले हुए भौरों की तरह गाते हुए उसके पीछे-पीछे चलते हैं, वहां उसका नूपुरों को बजा कर हिलोरों से अंचल को विकल कर के 'बजली की गति से गायब हो जाना वास्तव में वेश्या-स्वभाव का एक बहुत ही सुन्दर दृश्य दिखा जाता है। देवसभा के नृत्य का दृश्य भी बहुत ही चित्ताकर्षक है। इस सौन्दर्य का अन्त दुखान्त है; यहाँ कला का उत्कृष्ट परिचय मिलता है। वेश्याओं के सौन्दर्य का अन्त एक तो यों भी दुःखमय होता है, परन्तु यहाँ महाकवि एक दूसरी कल्पना से उसे दुःखमय कर देते हैं। वह दुःख ऊर्वशी के लिये नहीं है कवि के लिये है। इस सौन्दर्य को वे पुरातन युग की कल्पना में डुबो देते हैं। उस गौरव-राशि के अस्त हो जाने की याद कवि को रुला देती है। फिर वन्सत की हवा में विरह की साँस बह चलती है और हृदय के रोदन में एक आशा को जगा कर मुक्त ऊर्वशी का सौन्दर्य समाप्त हो जाता है। ऊर्वशी की सुन्दरता की इतनी मधुर वर्णना भी कवि को प्रसन्न नहीं कर सकती,—वे वह युग चाहते हैं—सत्यं शिवं सुन्दरम् वाला युग; इसीलिये कविता के वेश्या-सौन्दर्य में भी सत्यं शिवं सुन्दरम् अमर छाप लग गई है और नश्वर में अविनश्वर ज्योति आ गई है।