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संगीत-काव्य

किसी कवि में एक साथ बहुत से गुण नहीं मिलते। कितने ही शब्द- शिल्पी ऐसे देखे गये हैं जिनमें संगीत का नाममात्र भी न था। शब्दों के मायाजाल की रचना करते हुए ही उन्होंने अपना सम्पूर्ण समय और सारी एकाग्रता खर्च कर दी है। जो लोग अपनी या किसी दूसरे की कविताएँ सस्वर पढ़ लेते हैं, मुशायरे में अपना सुकोमल स्वर सुना कर श्रीताओं को मुग्ध कर लेते हैं, वे सुकण्ठ चाहे भले ही हों पर वे संगीत-मर्मज्ञ नहीं । जिस तरह अच्छी कविता लिखने के लिये पिंगल और अलंकार-शास्त्र का जानना आवश्यक है, उसी तरह संगीत-शास्त्र का ज्ञान प्राप्त करने या सुगायक बनने के लिये राग-रागनियों के स्वरूप, उनके स्वरों की पहचान, समय का निर्देश, ताल और मात्राओं की सूझ और और आवश्यक सूक्ष्मातिसूक्ष्म और और विषयों का अधिकार प्राप्त करना भी बहुत ही जरूरी है। अतएव कहना चाहिये, कविता की तरह संगीत की भी एक अलग शाखा है और उसके पठन और अनुशीलन में कदाचित् कविता की अपेक्षा अधिक समय लग जाता है। और यही कारण अक्सर कवियों को संगीत शास्त्र के अथाह सागर में आत्मसमर्पण करते हुए हतोत्साह कर देता है।

हिन्दी-साहित्य में जिन प्रसिद्ध कवियों ने घनाक्षरी, सवैया, दोहा, सोरठा और चौपाई आदि अनेकानेक छन्दों की सृष्टि की है, बहुत संभव है, सभास्थल में वे सस्वर उन्हें गाते भी रहे हों, और चूंकि आजकल मुशायरे में अक्सर