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रवीन्द्र-कविता-कानन
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इस बीसवीं सदी के लिये बंग-साहित्य में जिस तरह के संगीत-मर्मज्ञ की आवश्यकता थी, महाकवि रवीन्द्रनाथ के द्वारा वह पूरी हो गई। रवीन्द्रनाथ जितने बड़े शब्द-शिल्पी हैं उतने ही बड़े संगीत-विशारद भी हैं; बल्कि उनके लिये यह कहना चाहिये कि संसार में श्रेष्ठ स्थान उन्हें जिस पुस्तक के द्वारा प्राप्त हुआ है, वह संगीत की ही है—"गीताञ्जली" में भाव भाषा और स्वर के समावेश से जिस स्वर्गीय छटा का उद्बोध होता है, महाकवि रवीन्द्रनाथ ने बड़ी निपुणता से उसे ससार के सामने ला रखा है।

एक बार स्वर्गीय डी० एल० राय० महाशय के सुपुत्र बाबू दिलीपकुमार राय ने महात्मा गाँधी से मिल कर कला और सगीत के सम्बन्ध में उनसे प्रश्न किये थे; महात्मा जी ने कहा, 'मैं उस कला और उस सगीत का आदर करता हूँ जो कुछ चुने हुए आदमियों के लिये न होकर सर्वसाधारण के लिये हो।' इस पर दिलीप बाबू का उत्तर बड़ा ही सुन्दर हुआ था। उन्होने कहा, 'इस तरह कला को उत्कर्ष प्राप्त करने की जगह कहाँ रह जाती है? जो सर्वसाधारण की है, वह अवश्य ही असाधारण नहीं हो सकती और जिसके असाधारणता नही है, वह आदर्श भी नहीं है; और यदि आदर्श रहा तो साधारण जनो के उन्नत होने का लक्ष्य भी नहीं रह जाता; साधारण मनुष्यों की उन्नति का आदश क न रहने पर द्वार ही रक जाता है।'

दिलीप बाबू का भाव हृदय से स्वागत करने योग्य है। पूर्व और पश्चिम के पर्यटन से सगीत के सम्बन्ध में दिलीप बाबू का ज्ञान कितना बढ़ा-चढ़ा है, यह उनके लेखों से मालूम हो जाता है। एक जगह उन्होंने हिन्दी-सगीत के साथ बंगला संगीत की तुलना करते हुए लिखा है—हिन्दी-संगीत बंगला-सगीत से बहुत ऊँचा है, बगालियों को अभी बहुत काल तक हिन्दीभाषी गवैयों के चरणों पर बैठ कर शिक्षा ग्रहण करनी होगी।' दिलीप बाबू के वाक्य को अपनी स्मृति से मैं उद्धृत कर रहा हूँ, इस समय उनके लेख मेरे पास नहीं है; इन वाक्यों में शब्दो की एकता चाहे न हो पर उनके भाव ऐसे ही हैं, इस पर मुझे दृढ़ विश्वास है। दिलीप बाबू के ये शब्द बहुत ही जँचे-तुले और सहृदयता के सूचक हैं, इनसे दिलीप बाबू की निष्पक्ष समालोचना का भी पता चल जाता है। एक दिन आपस मे बातचीत हो रही थी कि यही राय 'आमार विज्ञान' के लेखक पण्डित रघुनन्दनजी शर्मा ने जाहिर की। हम यह भी देखते हैं कि अच्छे बंगाली गवैया ध्रवपद-धम्मार अक्सर हिन्दी में गाते हैं, फिर उनका