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रवीन्द्र-कविता-कानन
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वीर-शान्त और बरवा मालकोस—छाया आदि रसों और राग-रागिनियों का दिव्य संयोग दिखाने वाले, योरप को भारतीय कविता और भारतीय संगीत के उद्दाम छन्दों और कोमल-कठोर भावों से मुग्ध और चकित कर देने वाले महाकवि रवीन्द्रनाथ प्रथम भारतीय हैं।

कला को आदर्श स्थान पर प्रतिष्ठित करने के लिये किस तरह साधारण जनों की सीमा को पार कर जाना पड़ता है, किस तरह से अनमोल शब्दशृङ्खलित भाव के साथ स्वर की लड़ी में पिरोये जाते हैं, आगे चल कर विश्वकवि के कुछ उद्धृत संगीतों में देखिये:—

(संगीत-१)

"आहा जागि पोहाल बिभावरी
क्लान्त नयन तब सुन्दरी ॥१॥
म्लान प्रदीप ऊषानिल चंचल,
पाण्डुर शशधर गत अस्ताचल,
मुछी आँखीजल, चलो सखी चलो,
अगे नीलाञ्चल संवरी ॥२॥
शरत प्रभात-निरामय निर्मल,
शान्त समीरे कोमल परिमल,
निर्जन वनतल शिशिर-सुशीतल,
पुलकाकुल तरुवल्लरी ॥३॥
बिरह-शये केलि मलिन मालिका,
एसो नव भुवन एसो गो बालिका,
गांथी लह अंचले नव शेफालिका,
अलके नवीन फूलमंजरी ॥४॥

अर्थ—"अहा! जग कर सारी रात तुमने बिता दी, सुन्दरी! तुम्हारी आँखों में थकन आ गई है! ॥१॥ दिये की ज्योति मलिन पड़ गई है, चाँद मुरझा के अस्ताचल में फंस गया है; तुम अपने आँसू पोंछो,—चलो—सखी!—नीलाम्बरी साड़ी के अंचल-प्रान्त को देह में संभाल लो!॥२॥ (इस समय) शरत का प्रभात (कैसा) स्वास्थ्यकर और निर्मल हो रहा है। शान्त भाव से दुरते समीर के साथ कोमल परिमल भी आ रहा है, निर्जन वन का तल