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रवीन्द्र-कविता-कानन
 

भाग ओस से धुल कर शीतल हो गया है और द्रुमलताएँ पुलक की अतिशयता से व्याकुल हो रही हैं!॥३॥ विरह सेज पर अपनी मलिन माला छोड़ कर अयि बालिका, इस नवीन संसार में आओ! शेफालिका (हरसिंगार) फूलों की नई माला अंचल मे गूथ लो! बालों में फूलो की नई मंजरी खोस लो!॥५॥"

विश्वकवि के इस संगीत का प्लाट (नक्शा) यह है:—पहले कवि ने आगत यौवना किसी कामिनी के विरह की कल्पना की है, उसे सारी रात प्रियतम की प्रतीक्षा करनी पड़ी है। सेज पर प्रियतम की प्रतीक्षा में—उसे भोर हो गया—आँखों में जागरण की लालिमा और क्लान्ति आ गई है। नायिका की इस दशा को कवि-हृदय—अधिक देर तक नहीं देख सका—यहीं से उसके लिये कवि की सहानुभूति चित्रण-तूलिका के सहारे उतर कर एक अपूर्व ढंग से उसे संयोग का समाचार सुनाती है—सहानुभूति से लेकर समाचार के अन्त तक महाकवि की चित्रण-कुशलता गजब करती है—हृदय को बरबस अपनी ओर खीच लेती है। इस गीत-काव्य का श्रीगणेश करते हुए महाकवि अपने तुले हुए शब्दो में नायिका के नयनो के साथ समवेदना प्रकट करने के लिये बढ़ कर जब कहते हैं—

"आहा जागि पोहाल विभावरी
क्लान्त नयन तब सुन्दरी"

तब ये शब्द उनके रोम-रोम से विरहिणी के लिये समवेदना सूचित कर देते है—नायिका के विरह व्याकुल हताश भाव को उनकी सहृदयता एक क्षण भी नहीं देख सकती। महाकवि के उद्धत पूर्वोक्त वाक्य में, उनको अथाह सहानुभूति के साथ एक भाव जो और मिला हुआ है, वह है नायिका की उसी अवस्था से गुजर कर महाकवि का व्यक्तिगत अभिज्ञता का संचय—मानो कवि भी यह विरह का दुःख भोग चुका है, और चूंकि उसे इस दुःख का यथार्थ अनुभव है, इसलिये नायिका में अनुभवजन्य स्वजातीव भाव का आवेश देख उसके (कवि के) हृदय से एक वह अपनापन नायिका की ओर बढ़ रहा है जिसे सर्वथा हम स्वजातीय कह सकते हैं, और इसलिये इम सहानुभूति में एक खास सौंदर्य आ गया है—दोनों हृदय मानो एक हो रहे हैं, फर्क इतना ही है कि एक ओर जागरण जनित दुःख—बाट जोह कर थकी हुई छल छलाई आँखें, और दूसरी ओर है एक सच्चा सहृदय—मर्मज्ञ—अकारण प्यार करने वाला। सहृदय रवीन्द्रनाथ यहीं से नायिका को मिलन-भूमि की ओर ले चलते हैं, वे