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रवीन्द्र-कविता-कानन
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विरह के वर्णन में इतनी हाय-हाय नहीं मचाते कि पाठक भी ऊब जायँ; उधर, सहानुभूति के कोरे शब्दों से ही नायिका के प्रति सहृदयता प्रकट करके कवि अपनी मित्रता का उतना बड़ा परिचय हरगिज न दे सकते जितना बड़ा उन्होंने नायिका को मिलन-मंदिर की ओर बढ़ा कर दिया है। महाकवि नायिका से कहते हैं—

"म्लान प्रदीप उषानिल अंचल,
पाण्डुर शशधर गत अस्ताचल,
मुछी आंखींजल, चलो सखि चलो,
अंगे नीलांचल सँवरी।"—

प्रथम दो पंक्तियों में प्रकृति का चित्र है, फलकी पंक्तियों में नायिका के लिये धैर्य और साथ-साथ आशा। "अंगे नीलांचल संवरी" इस पंक्ति में विशृङ्खल भाव से—ढके हुए अङ्गों से खुल कर इधर-उधर पड़े हुए नीलाम्बरी साड़ी अचल-भाग को संभाल कर निकलने के लिये कह कर कवि नायिका को प्रियतम से मिला देने की आशा दिलाता । वस्त्र संभालने की ओर इशारा करके महाकवि ने नायिका विरह-भावना की ओर भी इशारा किया है। इस चित्र में बहुत मामूली बात भी कवि के ध्यान से नहीं हटने पाई। विरह की अवस्था में वस्त्र का खुल जाना बहुत ही स्वाभाविक है, और मिलने के पूर्व उसके संभालने की ओर इंगित करना उतना ही कवित्वपूर्ण। "चलो सखि चलो" इस वाक्य में रवीन्द्रनाथ मानो नायिका की सखी बन जाते हैं। यहाँ जब एक ओर क्षोभ अभिमान, विरह और निराशा नजर आती है और दूसरी ओर —धैर्य, प्रेम, सहृदयता और आशा का आश्वासन मिलता है, तब हृदय में कविता की कैसी दो दिव्य मूर्तियाँ एकाएक खड़ी हो जाती हैं! वर्णना शक्ति की सीमा से बाहर है। आगे चल कर महाकवि प्रकृति में स्वागत का चित्र दिखलाते हैं—"पुलकाकुल तरु बल्लरी" कह कर तरु और लताओं में प्रभात समय का प्राकृतिक पुलक दिखलाते हुए, कल्पना के द्वारा नायक के आ जाने का पुलक भी भर देते हैं। यहाँ प्रकृति के सत्य से कल्पना के सत्य का मेल है, प्रकृति के पुलक में नायक के आगमन की पुलक है।

"विरह-शयने फेलि मलिन मालिका,
एसो नव भूवने एसो गो बालिका।"

यहाँ विरह शय्या पर कल की गूँथी हुई मालिन माला को छोड़ कर