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रवीन्द्र-कविता-कानन
 

यह किसकी वीणा है—बजाने वाला कौन है, यह कवि को नहीं मालूम,—इतना ही रहस्य है—यही रहस्यवाद है—छायावाद है । यह जरूर है कि महाकवि के यौवन कुंज की हरी-भरी कुटीर में महाकवि के सिवा और कोई न था,—अपने यौवन की पल्लवित महिमा को देख हृदय की निर्जन कन्दरों में मधुर स्वर से उसका स्वागत करने वाले महाकवि ही थे, परन्तु अपनी सत्ता पर ऐसे स्थल में यदि वे जोर देकर निश्चय पूर्वक कुछ कहते तो कविता का सौंदर्य अवश्य ही नष्ट हो जाता, अज्ञात यौवना के यौवन और अंग-सम्बन्धी प्रश्नों की तरह महाकवि ने वीणा बजाने वाले पर अपनी अज्ञात का आरोप करके कविता को बहुत ही सुन्दर चित्रित कर दिया है। वीणा बजाने वाले वे स्वयं हैं, परन्तु अपने को भूल कर-भूल कर वीणा बजाने वाले को जानने के लिये उनकी उत्सुकता स्वयं यहाँ कविता बन रही है। महाकवि की अज्ञता अन्तिम बन्द को छोड़ कर और सब बंदिशों में है। वीणा बजने के साथ-साथ हृदय पर जो प्रभाव पड़ता है, उसका उल्लेख करते हुए लिखते हैं—

"प्रभात-कमल-सम
फुटिलो हृदय मम
कार दुटी निरुपम चरण तरे।"—

वीणा-झंकार के होते ही प्रभात-काल के कमल की तरह महाकवि के हृदय के दल खुल जाते हैं और उनके इस प्रश्न से कि—यह (हृदय) किसके दो अनुपम चरणों के लिये विकसित हो गया ?—एक और अज्ञेयवाद खड़ा हो जाता है। महाकवि के इस प्रश्न में बहुत बड़ी कविता है। चित्रकार पद्म को अंकित करके उस षोड़शी कामिनी या किसी देवी-मूर्ति को खड़ी कर सौंदर्य-ज्ञान की हद कर देते हैं, उधर कवि भी कमल से चरणों की उपमा देते हैं, यहाँ भी महाकवि का हृदय वीणा-ध्वनि सुन कर मानो किसी कामिनी के लिये कमल की तरह विकसित हो जाता है। परन्तु वह कामिनी है कौन, यह महाकवि को नहीं मालूम। हृदय-कमल का विकास किसी कामिनी के उस पर चरण रखने के लिये ही हुआ यह ठीक है, कमल भी खिला है और कामिनी का वहाँ आना भी निस्सन्देह है, परन्तु वह कामिनी है कौन?—कवि को नहीं मालूम। एक अज्ञात युवती को वह अपना सम्पूर्ण हृदय देने के लिये बढ़ा हुआ है। बढ़ा हुआ ही क्यों;—हृदय का विकास मानो दान के लिये ही हुआ है—उस पर उस कामिनी का स्वतः सिद्ध अधिकार है, हृदय वाले का जैसे वहाँ कुछ भी नहीं,