पृष्ठ:रवीन्द्र-कविता-कानन.pdf/१४७

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रवीन्द्र-कविता-कानन ' ॥६॥ न जाने किस स्वप्न देश की छायामयी अमरावती में वह मुक्तकेशी (इस समय) है ! ॥७॥ आज न जाने किस उद्यान में वह विरह की दिनों में भरी हुई आती है, और मेरे लिये वहाँ से रो कर चली जाती है ॥८॥ मैं अगर किसी संगीत की रचना भी करूं-संगीतों की माला गूंथू , तो प्राणों के अधीर होने पर वे संगीत-फिर मैं किसे सुनाऊँगा ? ॥६।। और. अगर फूलों की माला गूंथू तो वह हार भा मैं किसे पह्ना ? ॥१०।। अगर मैं अपने प्राणों का दान करना चाहूँ तो किसके चरणों में मैं इन्हें समर्पित करू ॥११॥ मेरा मन सदा डरता रहता है कि कहीं ऐसा न हो कि मेरी त्रुटि से हृदय में किसी को चोट लगे ॥१२॥ के साथ यह चित्र कवि के उदास भाव का है । जिस समय प्राणों में एक खोई हुई वस्तु के लिये मौन प्रार्थना गूंजती रहती है, कभी-कभी ऐसा भी होता है कि प्रार्थना का आभास मात्र रहता है परन्तु क्यों और किसके लिये प्रार्थना होती है, यह बात प्यासे हृदय को नहीं मालूम होती। इस संगीत में महाकवि की वैसी ही दशा है । शरदऋतु के स्वर्ण-प्रभात को देखते ही महाकवि के हृदय में एक आकांक्षा घर कर लेती है । सौंदर्य के साथ आकांक्षा, पुष्प के साथ कीट, यह ईश्वरीय नियम है । इस नियम का बन्धन कवि को भी स्वीकृत है । मनुष्य की सीमा में रह कर अपनी रागिनी को-अपने प्रकाश को असीम सौन्दर्य में मिला देने की कुशलता में रवीन्द्रनाथ अद्वितीय हैं। वे प्रत्येक वस्तु अपने हृदय को मिला कर उसकी महत्ता से अपने को महान करना जिस तरह जानते हैं, उसी तरह अपने हृदय की भाषा से संमार के हृदय को मुग्ध कर लेना भी उन्हें मालूम है । उनके इस संगीत में उदास स्वर बज रहा है, यह उदासीनता शरतकाल के स्वप्न सुन्दर प्रभात को देख कर आती है। इस उदासी में प्राणों की खोई हुई वस्तु का अभाव है और उसी के लिये मन आकाश के एक अनजाने छोर में उड़ जाता है। इस उक्ति की स्वाभाविक छटा देखने ही लायक है । महाकवि के मन की ही बात नहीं, मनुष्य मात्र के मन में जब उदासीनता की घटा घिर आती है, तब उच्चाटन के साथ वह न जाने किस एक अजाने देश में अपने हृदय को छोड़ कर उड़ता फिरता है । इस भाव को महाकवि की भाषा किस अद्भुत ढंग से अदा करती है, देखिये- "कोन कुसुमेर आशे, कोन फुल वासे; सुनील आकाशे मन घाय।"