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रवीन्द्र-कविता-कानन
 


आसमान में जिसके लिये मन चक्कर काट रहा है, कवि को उसका परिचय नहीं मालूम। यह बात उसे आगे चल कर मालूम होती है—वह अपनी उदासीनता का कारण समझता है। परन्तु समझने से पहले मन हरेक वस्तु को पकड़ कर, उसे उलट-पुलट कर देखता है, और उसे अपनी उदासीनता का कारण न समझ कर छोड़ देता था, जैसा स्वभावतः किसी भूले हुए आदमी की याद करते समय लोग किया करते हैं—जो नाम या जो स्वरूप मन में आता है वे प्राचीन स्मृति के सामने पेश करते और वहाँ से असम्मति की सूचना पा कर उसे छोड़ दूसरा नाम या दूसरा स्वरूप पेश करते हैं, जब तक स्मृति किसी नाम या स्वरूप को स्वीकृत नहीं करती तब तक इजलास के गवाहों की तरह नाम या रूप पेश होते रहते हैं। इस तरह की पेशी महाकवि के उदास मन में भी होती है, वे कहते हैं—

"आजि के जेनो गो नाई, ए प्रभाते ताई
जीवन विफल हय गो
ताइ चारि दिके चाय मन कैंदे गाय,
'ए नहे, ए नहे, नय गो'।"

जिसके लिये मन रो रहा है, उसकी सम्पूर्ण स्मृति महाकवि भूले हुए है—मन के सामने जिस किसी को वे पेश करते हैं उसके लिये मन कह देता है, "यह नहीं है, मैं इसे नहीं चाहता।" इसके पश्चात् महाकवि को मचले हुए मन की प्रार्थना-मूर्ति याद आती है और अपूर्व कवित्व में भर कर वे अपनी भाषा की तूलिका द्वारा उसे चित्रित करते हैं—

"कोन स्वपनेर देशे आछे एलो केशे
कोन छायामयी अमराय।
आजि कोन उपवने विरह-वेदने
आमारि कारणे केदे जाय।"

कवि की प्रेयसी वह खुले बालों वाली किसी छायामयी अमरपुरी की रहने वाली है। अब इतनी देर बाद उसकी आद आई। साथ ही महाकवि अपने उच्चाटन की मदिरा उसकी भी आँखों में छलकती हुई देखते हैं और स्वर उसके भी कण्ठ से सुनते हैं। वह वहाँ किसी उद्यान में विरह-व्यथा से भरी हुई आती है और उनके लिये रो कर चली जाती है।

उस विरह-विधुर-सुरपुरवासिनी की याद करके महाकवि को भाषा के