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रवीन्द्र-कविता-कानन
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धागे में संगीत पिरोना बिलकुल भूल जाता है, वे इससे उदास हो जाते हैं, क्योंकि जिन चरणों में संगीत की लड़ी उपहार के रूप में रखी जाती है, वे उनसे बहुत दूर हैं—वहाँ तक उनकी पहुँच किसी तरह नहीं हो सकती इस हताश भाव की ध्वनि में संगीत भी गूँज कर समाप्त हो जाता है।—व्यथा के बादल कुछ बूँद टपका कर जलती हुई जमीन को और जला जाते हैं।

(संगीत—४)

"लेगेछे अमल धवल पाले मन्द मधुर हावा
देखि नाइ कभु देखि नाइ एमन तरणी बावा॥१॥
कोन् सागरेर पार होते आने
कोन सुदूरेर धन।
भेसे जेते चाय मन;
फेले जेते चाय एई किनाराय
सब चावा सब पावा॥२॥
पिछने झरिछे झर-झर जल
गुरु गुरु देया डाके,
मुखे एसे पड़े अरुण किरण
छिन्न मेघेर फाँके।
ओगो काण्डारी, केगो तुमी, कार
हासी कान्नार धन।
भेबे मरे मोर मने,
कोन सुरे आजि बांधिबे यन्त्र
कि मन्त्र हबे गावा॥३॥

अर्थ:—'मेरे इस साफ और सफेद पाल में हवा के मधुर-मन्द झोंके लग रहे हैं, इस तरह से नाव का खेना मैंने कभी नहीं देखा॥१॥ भला किस समुद्र के पार से—किस दूर देश का धन इसमें खिंचा आ रहा है?—मेरा मन वहाँ बह कर पहुँच जाना चाहता है, और साथ ही,—इधर-इस किनारे पर सारी प्रार्थना और सम्पूर्ण प्राप्तियों को छोड़ जाना चाहता है॥२॥ पीछे झर-झर स्वर से जल कर रहा है, मेघों में गर्जना हो रही है, और कभी छिन्न बादलों के छेद से सूर्य की किरणें मेरे मुख पर आ गिरती हैं, ए नाविक, तुम कौन हो?—किसके हास्य और आँसुओं के धन हो? मेरा मन सोच-सोच कर रह