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रवीन्द्र-कविता-कानन
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रहा था। बाल्य की स्मृति-विस्मृति एक दूर की स्मृति-विस्मृति हो रही थी। बङ्गभाषा उस समय नौ वर्ष की एक बालिका थी।

उस समय राजा राममोहन राय के द्वारा बंगभाषा में गद्य का जन्म हो चुका था। उनकी प्रभावशालिनी लेखनी की बंगला साहित्य में मुहर लग चुकी थी। भाषा के शोधन और मार्जन में ईश्वरचन्द्र विद्यासागर हाथ लगा चुके थे। कविता की नयी ज्योति खुल चुकी थी—हेमचन्द्र मैदान में आ चुके थे। बंकिमचन्द्र उपन्यास और गद्य साहित्य में जीवन डाल चुके थे। नवीनचन्द्र की ओजस्विनी कविताएँ निकल रही थीं। मधुसूदनदत्त के द्वारा अमित्राक्षर छन्द की सृष्टि हो गई थी।

इतना सब हो जाने पर भी वह बंगभाषा में यौवन का शुभ भाव न था। जो कुछ था, वह बाल्य और किशोरता का परिचय मात्र ही था। किशोरी बंगभाषा के साथ इस समय अपनी मातृ-भूमि की मृदुल गोद पर खेल रहे वे किशोर रवीन्द्रनाथ-बगभाषा के यौवन के नायक-उसकी लीला के मुख्य सहचर-उसके तीसरे युग के एकछत्र सम्राट।

कलकत्ता के अपने जोड़ासाको भवन में १९६१ की ६ मई को रवीन्द्रनाथ पैदा हुए थे। इस वश की प्रतिष्ठा बंगाल में पहले दर्जे की समझी जाती है। अलावा इसके इम वंश को एक और सौभाग्य प्राप्त था जो श्रीमानों को अक्सर नहीं मिलता। इस वंश मे लक्ष्मी और सरस्वती की पहले ही से समान दृष्टि है। इसके लिये ठाकुर-वंश बंगाल में विशेष प्रसिद्ध भी है। लक्ष्मी और सरस्वती के पारस्परिक विरोध की कितनी ही कहानियाँ हिन्दुस्तान में मशहूर हैं। बंगाल में इन दोनों की मित्रता के उदाहरण में सबसे पहले ठाकुर घराने का नाम लिया जाता है। रवीन्द्रनाथ के पिता स्वर्गीय महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर थे और पितामह स्वर्गीय द्वारकानाथ ठाकुर। शारदा देवी आप की माता थीं।

ठाकुर-वंश पिराली ब्राह्मण समाज की ही एक शाखा है। इस वंश को 'ठाकुर' उपाधि अभी पांच ही छः पुश्त से मिली है। इस वंश के साथ बगाल के दूसरे ब्राह्मणों के समाज का खान-पान बहुत पहले ही से नहीं है। इस वंश के इतिहास से मालूम हुआ कि पहले इस वंश की मर्यादा इतनी बढ़ी-चढ़ी न थी। वह बहुत साधारण भी न थी। समाज में इसके पतित समझे जाने के कारण इसमें क्रान्ति करने वाली शक्तियों का अभ्युत्थान होना भी स्वाभाविक ही था। ईश्वर इच्छा, क्रान्ति के भावों के फैलाने के लिये इस वंश की शक्ति