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रवीन्द्र-कविता-कानन
 

जाता है। तुम आज किस स्वर में बाजा मिलाओगे—कौन-सा मन्त्र आज गाया जायगा? ॥३॥'

(संगीत—५)

"यामिनी ना जेते जागाले न केनो,
बेला होलो मरि लाजे ॥१॥
सरमें जड़ित चरण केमने
चलिब पथेर माझे ॥२॥
आलोक परशे मरमें मरिया
देख लो शेफाली पड़िछे झरिया,
कोन मते आछे पराण धरिया
कामिनी शिथिल साजे ॥३॥
निबिया बांचिलो निशार प्रदीप
उधार बातास लागी;
रजनीर शशी गगनेर कोने
लुकाय शरण मांगी!
पाखी डाकी बले—गैल विभावरी;
बधू चले जले लोइया गागरी,
आमी ए आकुल कवरी आवरी
केमने जाइबो काजे ॥४॥"

अर्थ:—रात बीतने से पहले तुमने मुझे क्यों नहीं जगाया ? दिन चढ़ गया—मैं लाजों मर रही हूँ ॥१॥ भला बताओ तो—इस हालत में जब कि मारे लज्जा के मेरे पैर जकड़-से गये हैं, मैं रास्ता कैसे चलूँ?॥२॥ आलोक के स्पर्श मात्र से मारे लज्जा के संकुचित हो कर—वह देखो—शेफालिकाएँ (हरसिंगार के फूल) झड़ी जा रही हैं, और इधर मेरी जो दशा है—क्या कहूँ, अपनी इस शिथिल सज्जा को देख किसी तरह हृदय को संभाले हुए हूँ ॥३॥ उषा की वायु से बुझ कर बेचारे निशा के प्रदीप की जान बची,—उधर रात का चाँद आसमान के कोने में शरण ले कर छिप रहा है, पक्षी पुकार कर कहते हैं—'रात बीत गई', बगल में घड़ा दबाये हुए बहुएँ पानी भरने के लिये जा रही हैं,—इस समय मैं खुली हुई अपनी व्याकुल वेणी को ढक रही हूँ, भला बताओ तो—कैसे मैं इस समय काम करने के लिये बाहर निकलूँ?'