पृष्ठ:रवीन्द्र-कविता-कानन.pdf/१५३

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रवीन्द्र-कविता-कानन १४९ तव गौरवे सकल गर्व लाजे जेन मेदा लाजे गो।। ५ ॥ अर्थ:--"मेरे प्राणों के कुंज में मानों सदा तुम्हारी ही रागिनी बज रही हैं ॥१॥ मेरे हृदय के पथ पर मानों सदा तुम्हारा ही आसन अवस्थित हैं ॥२॥ नन्दन-वनकी सुगन्ध से मोद मग्न तुम्हारे सुन्दर भवन में विचरण करता हूँ, ऐसा करो कि मेरा शरीर तुम्हारे चरणों की रेणु धारण करके सजा हुआ रहे ॥३॥ सब द्वेष तुम्हारे मंगल मन्त्र के प्रभाव से दूर हो जाय, तुम्हारे संगीत और छंदों के द्वारा तुम्हारी माधुरी मेरे हृदय में और बाहर विकसित हो रहे ॥४॥ तुम्हारे निर्मल और नीरव हास्य को मैं सम्पूर्ण आकाश में फला हुआ देखू, इस तरह तुम्हारे गौरव के आगे मेरा सारा गर्व लज्जित हो जाय ॥५॥" (संगोत-६) "सलक गर्व दूर करि दिबो तोमार गर्व छाडिबो ना ॥१॥ सबारे डाकिया कहिब, जे दिन पाब तव पद रेणु-कण ॥२॥ तव आह्वान आसिबे जखन से कथा केभने करिब गोपन ? सकल वाक्ये सकल प्रकाशिबे तव आराधना॥३॥ अत मान आमि पेयेछि जे काजे से दिन सकलि जाबे दूर शुधु तव मान देह सने मोर बाजिया उठिबे एक सुरे! पथेर पथिक सेओ देखे जाबे तोमार बारता मोर मुख भावे, भव संसार वातायन-तले बोसे रबो जबे आनमना ।।४।। अर्थ:-मैं अपना और सब गर्व दूर कर दूंगा, परन्तु तुम्हारे लिये मुझे जो गर्व है, उसे मैं कदापि न छोड़गा ॥१॥ सब लोगों को पुकार कर मैं कह कम