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रवीन्द्र-कविता-कानन
 

दूँगा जिस दिन तुम्हारी चरणरेणु मुझे मिल जायगी (तुम्हारी कृपा के मिलते ही मैं दूसरों को पुकार कर उसका हाल उन्हें सुना दूँगा—तुम्हारी कृपाप्राप्ति के लिये उनमें भी उत्साह भर दूंगा।) ॥२॥ तुम्हारी पुकार जब मेरे पास आयेगी, तब उसे मैं कैसे गुप्त रख सकूँगा?—मेरे सब वाक्यों और सम्पूर्ण कार्यों से तुम्हारी पूजा प्रकट होगी ॥३॥ मेरे कार्य से मुझे जो सम्मान मिला है, उस दिन इस तरह के सब सम्मान दूर हो जायेंगे, एकमात्र तुम्हारा मान मेरे शरीर और मन में एक स्वर से बजने लगेगा; चाहे रास्ते का पथिक क्यों न हो, पर वह भी मेरे मुख के भाव से तुम्हारा संदेश देख जायगा, जब इस संसार रूपी झरोखे के नीचे मैं अनमना हुआ बैठा रहूँगा ॥४॥"

(संगीत-१०)

अल्प अइया थाकि ताइ मोर
जाहा जाय ताहा जाय ॥१॥
कणाटुकु यदि हाराय ता लये
प्राण करे हाय हाय ॥२॥
नदी-तट सम केवलि बृथाई
प्रवाह आंकड़ि राखिवारे चाई,
एके एके बुके आघात करिया
ढेउ गुलि कोथा धाय ॥३॥
जाहा जाय आर जाहा किछु थाके
सब यदि दी सपिया तोमाके
तबे नाहीं क्षय, सविं जेगे रय
तब महा महिमाय ॥४॥
तोमाते रयेछे कतो शशीभानु,
कभु ना हाराय अणुपारमाणु
आमार क्षुद्र हाराधन गुलि
रबे ना कि तव पाय? ॥५॥

अर्थ:—"मैं थोड़ी-सी वस्तु समेट कर रहता हूँ, इसलिये मेरा जो कुछ जाता है वह सदा के लिये चला जाता है। एक करण भी अगर खो जाता है तो जी उसके लिये हाय-हाय करने लगता है ॥२॥ नदी के कंगारों की तरह सदा