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रवीन्द्र-कविता-कानन
 

को साधन भी यथेष्ट मिले और समाज से दब कर मुरझाने के बदले देश और संसार में उसने एक नयी स्फूर्ति फैलायी। धर्म, दर्शन, विचार-स्वातन्त्र्य, साहित्य, संगीत, कला और प्रायः सभी विषयों में ठाकुर घराने की इस समय एक खास सम्मति रहती है। संसार में उसकी सम्मति आदर-योग्य समझी जाती है। सामाजिक बाधाओं के कारण विलायत-यात्रा, धर्म-संस्कार, साहित्य संशोधन और सभ्यता के हर एक अंग पर अपनी कृतियों के चिन्ह छोड़ने का इस वंश को एक शुभ अवसर मिला।

श्राद्ध के समय इस घराने में दस पुरुषों तक के जो नाम आते थे वे ये है:—

"ओं पुरुषोत्तमाद बलरामो बलरामाद्धंरहरो हरिहराद्रामानन्दो रामा-नन्दान्महेशो पचाननः पंचाननाज्जये रामो जय रामान्नीलमणि नीलमणो रामलोचनों रामलोचनाद्वारकानाथो नमः पितृपुरुपेभ्यो नमः पितृ पुरुषेभ्य।"

"पुरुषोत्तम—बलराम—हरिहर—रामानन्द—मद्देश—पंचानन—जयराम—नीलमणि—रामलोचन—द्वारकानाथ—देवेन्द्रनाथ—रवीन्द्रनाथ—रथीन्द्रनाथ।

ठाकुर-वश भट्टनारायण का वंश है। भट्टनारायण उन पाँच कान्यकुब्जों में हैं जिन्हें आदि शूर ने कन्नौज से अपने यहाँ रहने के लिए बुलाया था और बंगाल में खासी सम्पत्ति देकर उन्हें प्रतिष्ठित किया था। संस्कृत के वेणी-संहार नाटक के रचयिता भट्टनारायण यही थे। जिनका नाम पितृ पुरुषों की वश-सूची में पहले आया है, वे पुरुषोत्तम यशोहर जिले के दक्षिण डिहो के रहने वाले पिराली वंश के एक ब्राह्मण की कन्या से विवाह करके पिराली हो गये थे। ये यशोहर में रहने भी लगे थे।

इसी वश के पंचानन यशोहर से गोविन्दपुर चले आये। यह मौजा हुगली नदी के तट पर बसा है। यहाँ नीच जातियाँ ज्यादा रहती थीं। ये उन्हें 'ठाकुर' कह कर पुकारती थी। बगाल में ब्राह्मणो के लिये यह सम्बोधन आमफहम है। इस तरह, पंचानन के बाद से इस वश की यही 'ठाकुर' उपाधि चली आ रही है।

गोविन्दपुर में जब पंचानन पहले पहल गये और बसे, उस समय भारत में अंग्रेज पर जमा हो रहे थे। वहाँ के अग्रेजों से पंचानन की जान पहचान हो गई। अंग्रेजों ने उनके लड़के को जिनका नाम जयराम था, २४ परगने का जमींदार मुकर्रर कर दिया। जयराम ने कलकत्ते के पथरिया हट्टे में एक मकान