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रवीन्द्र-कविता-कानन
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बनवाया और कुछ जमीन भी खरीदी। १७५२ ई० में उनका देहान्त हो गया। उनके चार पुत्र थे। उनमें उनके दो लड़कों ने, नीलमणि और दर्पनारायण ने कलकत्ते के पथरिया हट्टा और जोड़ासाकू में दो मकान बनवाये। इस वंश की सम्पत्ति का अधिक भाग रवीन्द्रनाथ के पितामह द्वारकानाथ ने स्वयं उपार्जित किया था और उनके ऋण के कारण उसका अधिकांश चला भी गया।

इस वंश का धर्म पहले शुद्ध सनातन धर्म ही था। उस समय ब्रह्म-समाज बीजरूप में भी न था। इसके प्रतिष्ठाता रवीन्द्रनाथ के पिता महर्षि देवेन्द्रनाथ थे। इस समाज की प्रतिष्ठा कई कारणों से की गयी थी। पहला कारण तो यही है कि ब्राह्मण-समाज में इस वंश की प्रतिष्ठा न थी। दूसरे इस वंश के लोगों में शिक्षा और संस्कृति बढ़ गयी थी। भावों में उदारता आ गयी थी। ये विलायत-यात्रा के पक्ष में थे। द्वारकानाथ विलायत हो भी आये थे। इन कारणो से समाज की दृष्टि में इस वंश की जो जगह रह गई थी, वह भी जाती रही। इस वंश को इसकी बिल्कुल चिन्ता नहीं हुई। ज्ञान-विस्तार के साथ ही इसकी सुरुचि भी परिष्कृत होती गई। तुच्छ अभिमान की जगह उन्नत आर्य-संस्कृति का अभिमान पैदा हुआ। जाति और देश के प्रति प्रेम और प्रतिभा ने इस वंश को गौरव के शिखर पर स्थापित किया। रवीन्द्रनाथ का रंग और रूप देख कर आर्यों के सच्चे रंग एवं रूप की याद आ जाती थी। समाज और देश के मुख्य मनुष्यों द्वारा बाधा प्राप्त होने के कारण इस वंश के लोगों को अपने विकास के पथ पर अग्रसर होने की आत्म-प्रेरण हुई। ये बढ़े भी और बहत बढ़े। इनकी प्रतिभा में नयी सृष्टि रचने की जो शक्ति थी उसने देश और साहित्य का बड़ा उपकार किया, दोनों में एक युगान्तर पैदा कर दिया। जिसमें सृष्टि के हजारों मनुष्यों को उस मार्ग पर चलने की शक्ति है, जिसका ज्ञान प्रत्यक्ष अनुभव पर टिका हुआ है, जिसकी बुद्धि अपने विचारों से अपने को धोखा नहीं देती, वह हजार उपेक्षाओं और असंख्य बन्धनों में रहने पर भी अपनी स्वाधीन गति के लिये रास्ता निकाल लेता है। इन लोगों ने भी ऐसा ही किया। अपने लिये आर्य संस्कृति के अनुसार धर्म और समाज की सुविधा भी कर ली। इनके यहाँ अभी उस दिन तक देवी-देवताओं की पूजा हुआ करती थी। इन लोगों ने ब्रह्म-समाज की स्थापना की और वेदान्त वेद्य ब्रह्म की उपासना करने लगे। रवीन्द्रनाथ के पिता, महर्षि देवेन्द्रनाथ तो पक्के ब्राह्म-समाजी थे, परन्तु इनकी माता के हृदय में हिन्दूपन की छाया, मूर्ति पूजन के संस्कार, मृत्यु के अन्तिम