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रवीन्द्र-कविता-कानन
 

शिक्षा मिलती थी। एक तारों से जोड़ा हुआ नर कंकाल पाठागार में ला कर खड़ा कर दिया गया था। उधर हेरम्ब तत्वरत्न मुकुन्द सच्चिदानन्द से आरम्भ कर 'मग्धबोध' व्याकरण रटा रहे थे। बालक रवीन्द्रनाथ को अस्थि-विद्या के हाड़ों और वोददेव के सूत्रों में हाड़ ही अधिक सरस और मुलायम जान पड़ते थे। बङ्गभाषा की शिक्षा के परिपुष्ट हो जाने पर इन्हें अंगरेजी की शिक्षा दी जाने लगी।

पहले पहल इन्हें प्यारीलाल की लिखी पहली और दूसरी पुस्तक पढ़ायी गयी, फिर एक पुस्तक आक्सफोर्ड रीडिंग की। अंग्रेजी की शिक्षा में रवीन्द्रनाथ का जी न लगता था। पढ़ते-पढ़ते शाम हो जाती थी। मन अन्तःपुर की ओर भागा करता था। दिन भर की मिहनत के बाद थका हुआ मन क्रीड़ा की गोद छोड़ कर विदेशी भाषा के निर्दय बोझ के नीचे दबा रहना कैसे पसन्द करता? रवीन्द्रनाथ को इस समय की दयनीय दशा की स्मृति में लिखना पड़ा है—"उस अंग्रेजी पुस्तक की जिल्द, काली भाषा क्लिष्ट विषयों की, विद्यार्थियों से जरा भी सहानुभूति नहीं, बच्चों पर उस समय माता सरस्वती की कुछ भी दया नहीं देख पड़ी। प्रत्येक पाठ्य-विषय को ड्योढ़ी पर सिलेबुलों के द्वारा अलग किया हुआ उच्चारण, और ऐकसेण्टों को देखिये तो आप समझेंगे कि किसी की जान लेने के लिये बन्दुक पर संगीन चढ़ायी गयी है।" अंग्रेजी की पढ़ाई से रवीन्द्रनाथ की उदासीनता देख कर मास्टर सुबोधचन्द्र इन्हें बहुत धिक्कारते थे। इनके सामने एक दूसरे छात्र की प्रशंसा करते थे। परन्तु इस उपमान और उपमेय की छुटाई-बड़ाई यानी इस समालोचना का प्रभाव रवीन्द्रनाथ पर बहुत कम पड़ता था। कभी-कभी इन्हें लज्जा तो आती थी, परन्तु उस काली पुस्तक के अंधेरे में पैठने का दुस्साहस भी एकाएक न कर सकते थे। उस समय शांति का एकमात्र सहारा प्रकृति की कृपा होती थी। प्रायः देखा जाता है, क्लिष्ट विषया के दुरूह दुर्ग के अन्दर पैठने के लिये हाथ- पैर मार कर थके हुए बच्चे के प्रति दया कर के प्रकृति देवी उसे निद्रा के आराम-मन्दिर में ले जाती है। रवीन्द्रनाथ की भी यही दशा होती थी। पुतलियाँ नींद की सुखद मदिरा पी कर पलकों की गोद मे शिथिल हो कर धीरे-धीरे मुँद जाती थीं। इतने पर भी इन्हें विदेशी शिक्षा की निर्दय चेष्टाओं से मुक्ति न मिलती थी। आँखों में पानी के छींटे लगाये जाते थे। इस दुर्दशा से मुक्ति के दाता इनके बड़े भाई थे। अपने छोटे भाई की शिक्षा-प्रगति को प्रत्यक्ष