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रवीन्द्र-कविता-कानन
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करते ही उन्हें दया आ जाती थी। वे मास्टर से कह कर इन्हें छुट्टी दिला देते थे। आश्चर्य तो यह है कि वहाँ से चल कर बिस्तरे पर लेटने के साथ ही रवीन्द्रनाथ की नींद भी गायब हो जाती थी।

नार्मल स्कूल छोड़ कर ये बङ्गाल एकाडमी नाम से एक फिरंगी स्कूल में भर्ती हुए। वहाँ भी अंग्रेजी से इन्हें विशेष अनुराग न था। वहाँ कोई इनकी निगरानी करने वाला भी न था। वह स्कूल छोटा था। उसकी आमदनी कम थी। रवीन्द्रनाथ ने लिखा है—"स्कूल के अध्यक्ष हमारे एक गुण पर मुग्ध थे हम हर महीना, समय-समय पर, स्कूल की फीस दे दिया करते थे। यही कारण है कि लैटिन का व्याकरण हमारे लिये दुरूह नहीं हो सका। पाठ-चर्चा के अक्षम्य अपराध से भी पीठ अक्षत बनी रहती थी।"

बचपन में कविता लिखने की इन्होंने एक कापी आसमानी रंग के कागजी की बनाई थी। उसके कुछ पद्य निकल चुके हैं। होनहार तो ये पहले ही से थे। इनकी पहले की कविताओं में प्रतिभा यथेष्ठ मात्रा में मिलती है। लेकिन, निरे बचपन से कविता करते रहने पर भी, इन्हें, कुछ अंग्रेज, कीले और ब्रीनिंग की तरह, बचपन का प्रतिभाशाली कवि नहीं मानते। कुछ भी हो, हमें रवीन्द्रनाथ के उस समय के पद्यों में भी बड़ी ही सरस सृष्टि मिलती है।

पश्चिमी-संसार रवीन्द्रनाथ को नदी का कवि (River poet) मानता है। हैं भी रवीन्द्रनाथ नदी के कवि। उनकी कविताओं में जगह-जगह, अनेक बार, नदी का सौन्दर्य, प्रवाह और तरंगों की मनोहरता दिखलायी गयी है। सफल भी रवीन्द्रनाथ इन कविताओं में बहुत हुए हैं। नदी की कविता उनके लिये स्वाभाविक है। बंगाल नदियों के लिये प्रसिद्ध है। उधर रवीन्द्रनाथ के जीवन का बहुत-सा समय, नदियों के किनारे, उनके प्राकृतिक सौन्दर्य की उदार गोद में बीता है। सौन्दर्य-प्रियता रवीन्द्रनाथ की प्रकृति में उनके पिता की प्रकृति से दूसरी तरह की है। उनके पिता हिमालय शिखर-संकुल प्रदेश पसन्द करते थे, परन्तु रवीन्द्रनाथ को, समतल भूमि पर, दूर तक फैली हुई, हरी भरी, हँसती हुई, चंचल तथा विराट प्रकृति अधिक प्यारी है। जिन्हें रवीन्द्रनाथ आदर्श मानते हैं, वे कालिदास भी पर्वत-प्रिय कवि थे। रवीन्द्रनाथ की मौलिकता की यहाँ भी स्वतन्त्र चाल हैं।

पन्द्रहवें साल से पहले ही रवीन्द्रनाथ कुछ कविताएँ कर चुके थे। उनकी पहले की कविताएँ और समालोचना 'ज्ञानांकुर' में निकलती थीं। उन दिनों