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रवीन्द्र-कविता-कानन
 

'भारती' में भी ये लिखा करते थे। पहली और सब से बड़ी इनकी कवि-कथा नाम की कविता 'भारती' में निकली थी। इस समय यह पुस्तिकाकार बिकती है। कहते हैं कि जीवन की इस अवस्था में अंगरेज कवि शेली इन्हें बहुत प्यारा था। चूँकि यह उनकी कविता की पहली ज्योति थी—यौवन-काल को पहली रागिनी थी, इसलिये भावुकता और सर्वलोकप्रियता इसमें बहुत है। जीवन की अधखुली अवस्था में स्वभावतः संसार की ओर वह कर, अपनी धारा में उसे बहा ले चलने की भावना की प्रतिभा हर एक कवि में होती है। यही हाल उस समय रवीन्द्रनाथ का भी था। उनकी निर्जनप्रियता भी हद दर्जे की थी। अपने विकास की उलझनों को एकान्त में बैठे हुए दो-दो और तीन-तीन घण्टे तक वे सुलझाते रहते थे। हृदय की आँख इस तरह खुल रही थी। कुछ दिनों वे बाद बनफूल ले नाम से इनकी एक दूसरी पुस्तक निकली। यह उनकी ग्यारह से पन्द्रह साल तक की कविताओं का संग्रह था। उन कविताओं से कुछ ही कविताएँ इस समय के संग्रह में रह गयी हैं। बीसवें साल के अन्दर ही अन्दर 'गाथा' नाम की एक पुस्तक और उन्होंने कविता-कहानी में लिखी। रवीन्द्रनाथ के अंगरेज समालोचक लिखते हैं कि इसे पढ़ कर जान पड़ता है कि रवीद्रनाथ पर इस समय स्काट का प्रभाव था। बीसवें साल के अन्दर ही भानु-सिंह-संगीतों के बीस गाने तक उन्होंने लिख डाले थे। कहते हैं कि इस समय से रवीन्द्रनाथ का यथार्थ साहित्यिक जीवन शुरू होता है।

लेकिन, इस बीसवें साल से पहले जब वे सोलह साल के थे, २० सितम्बर १८७७ को, पहली बार वे विलायत के लिये रवाना हुए थे और साल भर बाद ४ नवम्बर १८७८ को बम्बई वापस आये। 'भारती' में इनकी योरप-पर्यटन पर लिखी गई कुछ चिट्ठियाँ निकल चुकी हैं जिससे सूचित हो जाता है कि योरप उस समय इनके लिये सन्तोषप्रद नहीं हो सका। अरुचिकर चाहे जितना रहा हो, परन्तु सर्वांशतः योरप इनके लिये निष्फल नहीं हुआ। मब से बड़ा लाभ तो इन्हें यही हो गया कि जिस महत्ता को रूप-रस-गन्ध-स्पर्श शब्द और संगीतों द्वारा ये सार्वभौमिक करने के लिये पैदा हुए थे उसके समुद्बोधन के लिये इन्हें वहाँ यथेष्ट साधन मिल गये। पहली बात तो यह कि इन्होंने पृथ्वी का विशाल भाग उचित उम्र में प्रत्यक्ष देख लिया। दूसरी बात, संसार की बहुत-सी सभ्य जातियों की शिक्षा और उनके आचार-व्यवहारों की परीक्षा हो गयी। तीसरे, प्राकृतिक दृश्यों की विचित्रता और हर प्रकृति के मनुष्यों का बाहरी प्रकृति के