पृष्ठ:रवीन्द्र-कविता-कानन.pdf/३८

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प्रतिभा का विकास 1 यों तो आत्म-विश्वास सभी मनुष्यों को होता है--सभी लोग अपनी शक्ति का अन्दाजा लगा लेते हैं, फिर कवियों और महाकवियों के लिये यह कौन बहुत बड़ी बात है । दूसरे लोगों को तो अनुमान मात्र होता है कि उनमें शक्ति की मात्रा इतनी है, परन्तु वे उस अनुमान को विषद रूप से जन-समाज के सामने रख नहीं सकते; कारण, उन पर वागवी की वैसी कृपा-दृष्टि नहीं होती; परन्तु जो कवि हैं, उन्हें जब अपनी प्रतिभा का ज्ञान हो जाता है तब वे, दूसरों की तरह निर्वाक रह कर अथवा थोड़े ही शब्दों में, अपनी प्रतिभा का परिचय नहीं देते । वे तो अपने लच्छेदार शब्दों में पूर्ण रूप से उसे विकसित कर दिखने की चेष्टा करते । नहीं तो फिर सरस्वती के बरदपुत्र कैसे ? महाकवि श्रीहर्ष ने अपने नैषध-काव्य की अध्याय-समाप्ति में और कहीं महाकवि भवभूति ने भी, कैसे पुरजोर शब्दों में अपने महत्व की याद की है, यह संस्कृत के पण्डितों को अच्छी तरह मालूम है । परन्तु कवियों और महाकवियों के लिये इस तरह का वर्णत न तो अतिशय-कथन कहा जा सकता है और न प्रलाप हो। यह तो उनके आत्म-परिचय के रूप में किया गया उनका उतना ही स्वाभाविक उद्गार है जितना प्रकृति का बसन्त । अस्तु, प्रतिभा के विकास काल में महाकवि रवीन्द्रनाथ किस तरह से हृदय की बातें खोल रहे हैं, सुनिये "आजि ए प्रभाते पथहारा आलयन पेय पड़ेछे आसिये आमार त्राणेर पर सहसा केरने रबि-कर