पृष्ठ:रवीन्द्र-कविता-कानन.pdf/३९

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रवीन्द्र-कविता-कानन ५ बहु दिन परे एकटी किरण गुहाय दियेछे देखा पड़ेछे आमार आंधार सलिले ___एकटी कनक रेखा।" | (आज इस प्रभात के समय, सूर्य की एक किरण एकाएक अपनी राह क्यों भूल गई, यह मेरी समझ में नहीं आता। वह कहीं ठहरने की जगह न पा, मेरे प्राणों पर आ कर गिर रही है। मेरे हृदय की कन्दरा में बहत दिनो के बाद किरण दिखायी दे रही, है-मेरी अन्धकार सलिल राशि पर सोने की एक रेखा खिची हुई है !) पाठक ! वर्णना की मनोहारिता पर ध्यान दीजिये । हृदय की इस उक्ति को अपने विचार के तराजू पर तोल कर देखिये, यह पूरी उतरती है या स्वाभावोक्ति में कहीं कोई कसर, कोई त्रुटि, कोई वाचालता, कोई बनावट या कोई मनगढन्त है। कवि हृदय का यह प्रथम प्रभात है। बाहर जिस किरण को पा कर कवि ने इतनी उक्तियां कही हैं, वह किरण बाहरी संसार के भगवान भुवन-भास्कर की किरण नहीं, वह वनदेवी की ही प्रतिभा की किरण है-उसी की कनकरेखा कवि के हृदय पट पर खिच गयी है। बहुत दिनों तक हृदय में अन्धकार का राज्य था, वहां किसी तरह की ज्योति पहुँच न सकती थी। कवि भी अंधेरे में पड़ा हुआ था। जिस दिन हृदय में एकाएक इम कनक किरण का प्रवेश हुआ, कवि चौक पड़ा । अपन महान स्वरूप को देख कर वह मुग्ध हो गया। उसे पहले स्वप्न में भी यह विश्वास न था कि वह इतना महान् है--- उसके भीतर इतनी शक्ति है-इतनी विशालता है। वह इस सम्बन्ध में स्वयं कहता है-- "प्राणेर आवेग राखिते नारि, थर थर करि कांपिछे वारि, टलमल जल करे थल थल, कल कल करि धरेछे तान । आजि ए प्रभाते कि जानि केरने जागिया उठेछे प्राण ! (मैं अपने प्राणों के आवेग को रोक नहीं सकता। मेरे हृदय की सलिल