रवीन्द्र कविता-कानन राशि थर-थर कांप रही है । जल टलमल कर रहा है - उथल-पुथल मचा रहा है—कल-कल स्वर से रागिनी अलाप रहा है। आज इस प्रभात में मेरे प्राण क्यों जग पड़े, यह मेरी समझ में नहीं आता !) देखा आपने ? यह काव्य-प्रतिभा के प्रथम विकास का समय है । हृदय खुल गया है। हृदय-सरोवर की सलिल-राशि छोटी-छोटी लहरियों से मचल रही है । कवि को यह देख कर आश्चर्य हो रहा है। उसने अपने जीवन-काल में अपनी अवस्था का इस तरह विपर्यय कभी नहीं देखा । यह सब उसकी समझ में नहीं आता । वह आश्चर्यचकित-सा अपने हृदय में लहरियों की चहल-पहल देख रहा है, उनके मृदु शब्दों में रागिनी की स्पष्ट झंकार सुन रहा है और वही रागिनी संसार को वह सुना रहा है । जब तक कवि के हृदय की आँखें नहीं खुली थीं तब तक उसे अपनी पूर्व अवस्था का भान न था—जिस अंधकार में पहले वह था, उसके सम्बन्ध में वह कुछ भी न जानता था। अँधेरे में पड़ा हुआ ही वह अपने सुख के कितने ही स्वप्न देखा करता था किन्तु उसे अँधेरा न जानता था, इसलिये कहता है- "जागिया देखिनु चारिदिके मोर पाषाणे रमित कारागार घोर बुकेर उपरे आंधार बहिया करिछे निजेरे ध्यान नाजानि केनरे एतो दिन परे जागिया उठेछे प्राण !" (जग कर मैंने देखा, मेरे चारों ओर पत्थरों का बनाया हुआ घोर कारा- गार है, और मेरी छाती पर बैठा हुआ अन्धकार अपने ही स्वरूप का ध्यान कर रहा है । इतने दिनों बाद क्यों मेरे प्राण जग पड़े, यह मेरी समझ में ही नहीं आता ) जब कवि की आँखें खुल जाती हैं, उसे अच्छे और बुरे का विवेक हो जाता है, तभी वह अपनी और दूसरों की परिस्थिति का विचार कर सकता है । महाकवि रवीन्द्रनाथ जग कर देखते हैं कि उनके चारों ओर पत्थरों का कारा- गार है । भला यह पत्थरों का कारागार है क्या चीज ? इसके यहाँ कई अर्थ ही सकते हैं और सभी सार्थक । पहले तो यह कहना चाहिये कि यह अज्ञान है क्योंकि जग कर कवि ने पहले अपनी पूर्व-परिस्थिति यानी अज्ञान को ही