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रवीन्द्र-कविता-कानन
 

ने उसकी क्रूरता का ही दिग्दर्शन कराया है; यही नहीं किन्तु उसे बड़ा हो निठुर और ममतारहित—स्वार्थ पर बतलाया है । ऐसी दशा में, यदि कवि अपनी सम्पूर्ण भीतरी और बाहरी प्रकृति के साथ उसे भी हँसाते तो मजा कुछ किरकिरा हो जाता। दूसरे कवि उसे हँसाना चाहते तो एकाएक हँसा दे सकते थे, परन्तु रवीन्द्रनाथ जैसे कुशल चित्रकार ऐसी भूल कब कर सकते थे? उन्होने उसे हँसाया नहीं किन्तु वे अपनी हास्यमयी प्रकृति से उसे मुग्ध करके हँसाना सिखा रहे हैं। उनकी हँसी की हिलोर में अन्ध कार का भी हृदय बिछल जाता है, वह भी हँसना चाहता है परन्तु पहले कभी न हँसने के कारण वह हँस नही सकता—वह हास्यमयी प्रकृति का मुंह देखना चाहता है कि हँसे पर हँस नहीं सकता, अतएव हँसना सीख रहा। यहाँ एक बात और ध्यान देने लायक है। पहले अन्धकार की निर्दयता दिखलायी जा चुकी है, विदेशियों की क्रूर प्रकृति के साथ भी उसकी तुलना की गई। परन्तु अब रवीन्द्रनाथ अपनी हास्यमयी प्रकृति की छटा दिखा कर उसे अपनी ओर इस तरह खींच लेते हैं कि उसे भी हॅसने की इच्छा होती है—परन्तु क्रूर एकाएक हँस नहीं सकता—उधर हँसी का जमा हुआ रंग भी उस पर इस तरह पड़ जाता है कि वह अपने स्वभाव को वहाँ भूल जाता है और निर्दयता की अपेक्षा हास्य को ही ज्यादा पसन्द करता है, इसीलिये हॅसना सीखता है। इससे सिद्ध है कि अपनी निर्भय और स्वाभाविक प्रसन्नता के द्वारा क्रूरों के मन पर भी विजय प्राप्त की जा सकती है। देश की ओर रवीन्द्रनाथ का यह भी एक बहुत बड़ा इशारा है और यौक्तिक तथा दार्शनिक-तत्व की एक बात और कवि ने इन पंक्तियों में कह डाली है। पहले जीवन में अन्धकार था। जीवन का अन्धकार मोह-मय था अतएव निश्चेष्ट था, उसमें कोई भी क्रियाशीलता न थी, वह जड़ था। जब विद्या की ज्योति हृदय में पहुँची, जागृति का युग आया, तब हृदय के मधुर स्पन्दन के साथ विश्व-संसार में कम्पन भर गया,—तब हृदय के साथ सारी प्रकृति नृत्यमयी हो गई—स्वप्न में नर्तन, हृदय में नर्तन प्रणय की प्रतिमा में नर्तन, सुख की निर्भरता में नर्तन, मोहनी प्रतिमा में नर्तन, स्मृति और अधमुदी विस्मृति में नर्तन, तारों में नर्तन, जल की लहरियों में नर्तन और सोते समय के झूले में नर्तन होने लगा—सब में जीवन की स्फूर्ति आ गयी—पहले की-वह जड़ता गयी।

अभी यह नर्तन बहुत ही मृदुल है, अभी यह कोमल कुमार का नर्तन है,