पृष्ठ:रवीन्द्र-कविता-कानन.pdf/४५

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रवीन्द्र-कविता-कानन ४१ अभी इसमें यौबन का उद्दाम ताण्डव नहीं आया ? अभी इस प्रथम जागरण के नर्तन में केवल सौन्दर्य है, कर्म नहीं, सुख है किन्तु तृष्णा नहीं, प्रेम है किन्तु लालसा नहीं, कल्पना है किन्तु कला नहीं, जीवन है किन्तु संगठन नहीं । जब वह समय आता है, तब कवि की लालसा संसार के एक छोर से ले कर दूसरे छोर तक फैल जाती है, जब हृदय अपने ही आधार में रह कर सन्नष्ट नहीं रहता-वह न जाने कहाँ-उस किस विशालता को समेट लेना चाहता है, जब प्रतिभा सुन्दरी यौवन के सुचारु दर्पण में अपना प्रतिबिम्ब देख कर कुछ गर्व करना, कुछ मान करना, कुछ अधिक प्रेम करना, कुछ वियोग करना, कुछ रूप का अभिमान करना सीखने के लिये लालायित होती है, तब महाकवि के हृदयोद्गार इन स्वरूपों में बदल जाते हैं--- नारी। “जागिया उठेछे प्राण, (ओरे) उथली उठेछे वारी, ओरे प्राणेर वासना प्राणेर आवेग रुधिया राखिते थर थर करि कांपिछे भूधर शिला राशि राशि पडिछे खमे, फुलिया फुलिया फेनिल मलिल गरजि उठिछे दारुण रोषे हेथाय होथाय पागलेर प्राय घुरिया घुरिया मातिया बेड़ाय; बाहिरिते चाय, देखिते ना पाय कोथाय कारार द्वार। प्रभाते रे जेनो लइते काड़िया, आकाशेरे जेनी फेलिते छिड़िया उठे शून्य पान पड़े आछाड़िया करे शेषे हाहाकार। प्राणेर उल्लासे छुटिते चाय, भूधरेर हिया टुटिते चाय,