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रवीन्द्र-कविता-कानन
 

आलिंगन तरे ऊद्ध्वे बाहु तुलि
आकाशेर पाने उठिते चाय।
प्रभात किरणे पागल होइया
जगत माझारे लुटिते जाय।
केन रे विधाता पाषाण हेनो,
चारिदिके तार बाँधन केनो?
भांगरे हृदय भांगरे बाधन,
साधरे आजिके प्राणेर साधन,
लहरीर परे लहरी तुलिया
आघातेर परे आघात कर;
मातिया सखन उठेछे पराण,
किसेर आंधार किसेर पाषाण;
उथलि जखन उठेछे वासना
जगते तखन किसेर डर।"

(मेरे प्राण जग पड़े हैं, मेरे हृदय की सलिल-राशि उमड़ रही है, मैं अपने हृदय की वासनाओं को—अपने प्राणों के आवेग को रोक नहीं सकता। भूधर थर थर काँप रहा है, शिलाओं की राशि उससे छूट कर गिर रही है। फेनिल सलिल फूल-फूल कर बड़े ही रोष से गरज रहा है। पागल की तरह वह जहाँ-तहाँ मतवाला हो कर घूम रहा है। वह निकलना चाहता है। परन्तु कारागार का द्वार उसे देख नहीं पड़ता, मानो वह प्रभात को छीन लेने के लिये, आकाश को फाड़ डालने के लिये, शून्य की ओर बढ़ता है, परन्तु अन्त को रास्ते में ही गिर कर हाहाकार करता है। प्राणों के उल्लास से वह दौड़ कर बढ़ना चाहता है, जिसे देख कर पहाड़ का हृदय भी टुकड़ा-टुकड़ा हुआ चाहता है, वह आलिंगन के लिये ऊर्द्धव पथ की ओर अपनी बाहें बढ़ा कर आकाश की ओर चढ़ जाना चाहता है। वह प्रभात की किरणों में पागल हो कर संसार में लौटना चाहता है। विधाता! इस तरह का पत्थर क्यों है? उसके चारों ओर इस तरह के बन्धन क्यों है? हृदय! तोड़ इन बन्धनों को। अपने हृदय की साधना पूरी कर ले, लहरियों पर लहरियां उठा कर आधात पर आघात कर, जब प्राण भस्त हो रहे हैं तब अन्धेरा कैसा पत्थर? जब वासना उमड़ चली है तब संसार में फिर किस बात का भय?)