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रवीन्द्र-कविता-कानन
 

कर हृदय की बात कहता हुआ—गाने गाता हुआ बह जाऊँगा, जितना हो मैं जान डालता रहूँगा, उतना ही मेरे प्राण बहेंगे, फिर मेरे प्राणों का शेष न होगा। मेरो इतनी बातें हैं, इतने मेरे ज्ञान हैं, इतना जीवन और इतनी आकांक्षाएँ है कि मेरे प्रारण उनसे मस्त हो रहे हैं।)

जिस समय हृदय के अन्तस्तल को आलोक-पुलकित प्रतिभा का अमर वर मिल रहा था—जिस समय पार्थिव और स्वर्गीय रश्मियाँ एक साथ मिल रही थी—जिस समय सलिल-राशि अपने प्रवाह के लिये स्वयं ही अपना रास्ता बना रही थी—जिस समय कली के भीतर की अवरुद्ध गन्ध अपने विकास के लिये—प्रकृति के सौदर्य के साथ अपना सौंदर्य मिलाने के लिये—अपनी सुन्दरता का बिम्ब दूसरों की प्रसन्नता में देखने के लिये, मचल-मचल कर कली के कोमल दलों में धक्का मार रही थी, महाकवि रवीन्द्रनाथ की ये उसी समय की युक्तियाँ हैं। कली की सुगंध की तरह महाकवि की प्रतिभा भी अपनी छोटी-सी सीमा के भीतर सन्तुष्ट नहीं रहना चाहती । वह हर एक मानवीय दुर्बलता को परास्त करना चाहती है। यह उसका स्वाभाविक धर्म भी है। क्योंकि दैवी-शक्ति वही है जो मानवीय बन्धनो का उच्छेद कर देती है। जो बन्धन मनुष्य को कर्मशः दुर्बल करते हैं, उन्हें खोल कर मनुष्य को मुक्त कर देने की शक्ति दैवी-शक्ति में ही है। कभी-कभी आसुरी उछृङ्खलता भी मानवीय पाशो का कृतान करती है, और अधिकांश समय में, देवा-शक्ति के बदले आसुरी-शक्ति को ही मानवीय शृंखलाओ के नाश के लिये जन-समाज में उछुकलता का बीजारोपण करते हुए हम लोग देखते हैं। प्रायः हम लोग उसकी क्षणिक उत्तेजना के वश में आकर उसके विषमय भविष्य-थल की ओर ध्यान देना उस समय भूल जाते है। इससे जन-समुदाय एक कदम पीछे ही हट जाता है, यद्यपि पहले उसे आसुरी उत्तेजना के द्वारा बढ़ने का एक लालच-ऐसा होता है। परन्तु रवीन्द्रनाथ की यह उत्तजना आसुरो उत्तेजना नहीं, उनकी यह ललकार जन-समुदाय में किसी प्रकार की आसुरी भावना नहीं लाती। उनके शब्द सोते हुओ को जगाते है, उन्हें अपना कर—अपने स्वरूप में उन्हें भी मिला कर—अपने भाव उनमें भी भर कर, अपनी ही तरह उन्हें भी उठा कर खड़ा कर देता है और उन्हें सुनाता है एक वह मंत्र जो जागरण के प्रथम प्रभात में हर एक पक्षी संसार को सुनाया करता है, जिसमें उसका अपना स्वार्थ कुछ भी नहीं है—है केवल अपने आनन्द के स्वर से दूसरों को सुख देने की एक लालसा—स्वार्थ पर होने पर भी,