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रवीन्द्र-कविता-कानन
 

कवि को जब अपनी महत्ता का अनुभव होता है तब वह इस प्रकार अपनी व्याप्ति का वर्णन करता है—

"रवि-राशि भाँति गाथिबो हार,
आकाश आँकिया परिबो बास।
साँझेर आकाले करे गालागालि,
अलस कनक जलद राश।
अभिभूत होये कनक-किरणे;
राखिते पारे ना देहेर भार।
येनोरे विवशा होयेछे गोधुलि,
पूरवे आंधार बेणी पड़े खुली।
पश्चिमेते पड़े खसिया खसिया,
सोनार आंचल तार।
मने हबे येन सोना मेघ-गुलि
खसिया पड़ेछे आमारि जल
सुदूरे आमारि चरण-तल।
आकली-विकुली शत बाहुतृलि
यतो इ हारे धरिते जाबो
किछुतेई तारे काछे न पाबो।
आकाशेर तारा आबाक हबे
साराटी रजनी चाहिया रबे
जलेर तारार पाने।
ना पाबे भाविया एलो कोथा होते,
निजेर छायारे जाबे चूम खेते
हेरिबे स्नेहेर प्राणे।
श्यामल आमार दुइटी फूल,
माझे माझे ताहे फुटिवे फूल।
खेला छले काछे आसिया लहरी
चकिते चुकिया पलाये जावे,
शरत-विमला कुसुम रमणी
फिराबे आनन शिहरि अमनी