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रवीन्द्र-कविता-कानन
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आवेशेते शेषे अवश होइया
सखिया पड़िया जाब।
भेसे गिये शेषे कांदिबे हाय
किनारा कोथाय पाब!

(मैं सूर्य और चन्द्र को गूँथ कर हार पहनूँगा, आकाश को अंकित करके उसका वस्त्र पहनूँगा। देखो जरा उधर भी, सुनहरे बादलों के अलग दल सूर्य की कनक-किरणों को चूम कर इस तरह शिथिल हो गये हैं कि वे अपने ही शरीर का भार नहीं संभाल सकते हैं। और उधर, मानो गोधूलि भी विवश हो रही है, क्योंकि देखो न, पूरब की ओर उसको खुली हुई वेणी का अंधेरा छा गया है और पश्चिम ओर उसका सुनहरा आंचल खुल-खुल कर गिरा जा रहा है। कभी मुझे ऐसा मालूम होता कि सुनहरे मेघ मेरी ही सलिल-राशि पर टूट-टूट कर गिर रहे हैं—दूर मेरे ही पैरों के नीचे। मैं व्याकुल हो कर अपने शत-शत बाहुओं को फैला कर जितना ही उन्हें पकड़ने के लिये जाऊँगा, चै मेरी पकड़ में न जावेंगे। यह देख कर आकाश तारों को आश्चर्य होगा। वे रात भर पानी के तारों की ओर हेरते रहेंगे । वे यह न समझ सकेंगे कि ये पानी के तारे कहाँ से आये, वे अपनो छाया को चूमने चलेंगे, पर मैं स्नेह की दृष्टि से देखता रहूँगा। मेरे दोनों तट कैसे श्याम हो रहे हैं!—इनमे कहीं कहीं फूल खिल जायेंगे। लहरियाँ इन फूलों के पास खेलने के लिए आवेंगी और एक-एक इन्हें चूम कर भाग जायेंगी। तब मारे शर्म के कुसुम-कुमारी सिहर उठेगी,—उसी समय अपना मुँह फेर लेगी—अन्त में लज्जा के आवेश में अवश हो कर झड़ जायगी। हाय! बहती हुई वह जल में रोती फिरेगी, फ़िर उसे किनारा कहाँ मिलेगा?)

यह कवि की कविता-माधुरी है। इस कल्पना में वह ओज नहीं जो उनकी पहले की पंक्तियों में हैं। अन्धकार दूर हुआ, हृदय के अन्तर्पट पर प्रतिभा की किरण गिरी, फिर क्रमशः उसकी प्रखरता इस तरह बढ़ती गई कि विश्व भर का उसने ग्रास कर लिया—उसके उद्दाम-वेग—प्रखर गति में विश्व का हृदयस्पन्द गततर होता गया, फिर उसमें लालसा की सृष्टि हुई, लालसा की ही उत्पत्ति कवि के हृदय में नई-नई सृष्टियों के बीज बोती है। क्योंकि, किसी भी सृष्टि के पहले हम लालसा या इच्छा को ही पाते हैं। यदि लालसा न हो, यदि इच्छा न हो तो सृष्टि भी नहीं हो सकती। यह बात शास्त्रीय है। इधर