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रवीन्द्र-कविता-कानन
 

कविता में भी हमें यही क्रम मिलता हैं। प्रतिभा उर्वरा भूमि है और लालसा है बीज। इस बीज के पड़ने पर जो अंकुर उगता है, पूर्वोद्धृत पद्य में उसका रूप हम देख लेते हैं, वह अंकुर की ही तरह कोमल है और सुन्दर तथा मृदुल। और लालसा की प्रथम सृष्टि मे जो रूप हमें देखने को मिलता है, वह आदि रस का ही रूप है और मृष्टि की सार्थकता को 'आदि' के द्वारा बड़ी ही खूबी से सिद्ध करता है। कवि की लहरियाँ अपने तट पर के खिले हुए फूलों को चूमकर भाग जाती है और उनका यह अभिसार—यह प्यार, नारी-स्वभाव की परिधि मे रहने के कारण कुसुम-कामिनी से नहीं देखा जाता—वे लज्जा से सिहर उठती और फिर चिरकाल के लिये, अपने प्यारे वृत्त का आश्रय छोड़ जाती है—अन्त में सलिलराशि पर निरुपाय बह जाती है-उसे कही किनारा नहीं मिलता। इस सृष्टि में महाकवि रवीन्द्र नाथ ने आदि या शृंगार की सृष्टि किस खूबी से करके, कुसुम-कामिनी के निरुपाय बह जाने में इसका वियोगान्त अन्त करते हैं। यह बातें कविता-शिल्पियों के लिए ध्यान देने योग्य हैं। महाकवि की इस क्षुद्र सृष्टि में अनन्त शृगार है और उसका अवसान भी होता है अनन्त वियोग में। कुसुम कामिनी के उद्धार के लिए फिर तट नहीं मिलता, उसे किनारा नहीं मिलता। उसका सच्चा प्रेम नायिका-लहरियों के एक क्षणिक चुम्बन से मुरझा जाता है और साथ ही वह भी मुरझा कर झड़ जाती है और वहाँ बह जाती है जहाँ से फिर तट पर लगने की कोई आशा नहीं। कितनी सुन्दर सृष्टि है, छोटी और सुसम्बन्ध—महान्!

रवीन्द्रनाथ अपने सौन्दर्य का अनुभव दूसरों की भी कराते हैं। वे उन्हें पुकार-पुकार कर कहते हैं—

आजि के प्रभाते भ्रमरेर मत
बाहिर होइया आय,
एमन प्रभाते एमन कुसुम
केनोरे सुकाये जाय।
बाहिरे आसिया ऊपरे बसिया
केवलि गाहिबि गान,
तबे से कुसम कहिबे रे कथा
तबे से खुलिबे प्राण।